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नियमसार
१३९
(अनुष्टुभ् ) स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः। नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः।। १०३ ।।
पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा। धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होति।।७३ ।।
पंचाचारसमग्राः पंचेन्द्रियदंतिदर्पनिर्दलनाः। धीरा गुणगंभीरा आचार्या ईदृशा भवन्ति।।७३ ।।
अत्राचार्यस्वरूपमुक्तम्।
ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याभिधानै: पंचभिः आचारैः समग्राः। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियमदान्धसिंधुरदर्पनिर्दलनदक्षाः ।
लोकमें प्रधान हैं और मुक्तिसुंदरीके स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धोंको सिद्धिकी प्राप्ति के हेतु मैं नमन करता हूँ। १०२।
[ श्लोकार्थ:-] जो निज स्वरूपमें स्थित हैं, जो शुद्ध हैं, जिन्होंने आठ गुणरूपी संपदा प्राप्त की है और जिन्होंने आठ कर्मोंका समूह नष्ट किया है, उन सिद्धोंको मैं पुन: पुनः वन्दन करता हूँ। १०३।
गाथा ७३ अन्वयार्थ:-[पंचाचारसमग्राः] पंचाचारोंसे परिपूर्ण, [पंचेन्द्रियदंतिदर्पनिर्दलनाः ] पंचेंद्रियरूपी हाथीके मदका दलन करनेवाले, [धीराः] धीर और [ गुणगंभीराः] गुणगंभीर;[ ईदृशाः ] ऐसे , [ आचार्याः ] आचार्य [ भवन्ति ] होते हैं।
टीका:-यहाँ आचार्यका स्वरूप कहा है।
[भगवंत आचार्य कैसे होते हैं ? ] (१) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य नामक पाँच आचारोंसे परिपूर्ण; (२) स्पर्शन, रसन, ध्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँचइन्द्रियोंरूपी मदांध हाथीके दर्पका दलन करनेमें दक्ष (-पंचेंद्रियरूपी मदमत्त हाथीके मदको चूरचूर करने
मैं धीर गुणगंभीर अरु परिपूर्ण पंचाचार हैं। पंचेंद्रि-गजके दर्प-उन्मूलक निपुण आचार्य हैं ।। ७३ ।।
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