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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates व्यवहारचारित्र अधिकार १२८ मोहो दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा। संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा। रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः। असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो द्वेषः। इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति। (वसंततिलका) गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थचिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य। बाह्यान्तरङ्गपरिषङ्गविवर्जितस्य श्रीमजिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य।। ९१ ।। थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स। परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा।।६७ ।। दर्शनमोह और चारित्रमोह ऐसे (दो) भेदोंके कारण मोह दो प्रकारका है। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा ऐसे (चार) भेदोंके कारण संज्ञा चार प्रकारकी है। प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे (दो) भेदोंके कारण राग दो प्रकारका है। असह्य जनों के प्रति अथवा असह्य पदार्थसमूहोंके प्रति वैरका परिणाम वह द्वेष है।-इत्यादि "अशुभपरिणामप्रत्ययोंका परिहार हू ( अर्थात् अशुभपरिणामरूप भावपापास्रवोंका त्याग ही) व्यवहारनयके अभिप्रायसे मनोगुप्ति है। [अब ६६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] जिसका मन परमागमके अर्थोंके चिंतनयुक्त है, जो विजितेंद्रिय है ( अर्थात् जिसने इन्द्रियोंको विशेषरूप जीता है), जो बाह्य तथा अभ्यंतर संग रहित है और जो श्रीजिनेंद्रचरणके स्मरणसे संयक्त है, उसे सदा गप्ति होती है। ९१। * प्रत्यय = आस्रव; कारण। ( संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन-रक्षण करना सो गुप्ति है। भावपापासव तथा भावपुण्यास्रव संसारके कारण हैं।] जो पापकारण चोर, भोजन, राज दाराकी कथा । एवं मृषा-परिहार यह लक्षन वचनकी गुप्तिका ।। ६७।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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