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नियमसार
१२७
(द्रुतविलंबित) समितिसंहतितः फलमुत्तमं सपदि याति मुनिः परमार्थतः। न च मनोवचसामपि गोचरं
किमपि केवलसौख्यसुधामयम्।। ९० ।। कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं। परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।। ६६ ।।
कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम्। परिहारो मनोगुप्ति: व्यवहारनयेन परिकथिता।। ६६ ।।
व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत्। क्रोधमानमायालोभाभिधानैश्चतुर्भिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम्।
[श्लोकार्थ:-] समितिकी संगति द्वारा वास्तवमें मुनि मन-वाणीको भी अगोचर (-मनसे अचिंत्य और वाणीसे अकथ्य ) ऐसा कोई केवलसुखामृतमय उत्तम फल शीघ्र प्राप्त करता है। ९०।
गाथा ६६ अन्वयार्थ:-[ कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ] कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावोंके [ परिहारः ] परिहारको [ व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [ मनोगुप्तिः] मनोगुप्ति [ परिकथिता] कहा है।
टीका:-यह , व्यवहार “मनोगुप्तिके स्वरूपका कथन है।
क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायोंसे क्षुब्ध हुआ चित्त सो कलुषता है। * मुनिको मुनित्वोचित शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) मन-आश्रित,
वचन-आश्रित अथवा काय-आश्रित शुभोपयोग उसे व्यवहार गुप्ति कहा जाता है, क्योंकि शुभोपयोगमें मन, वचन या कायके साथ अशुभोपयोगरूप युक्तता नहीं है। शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है। वह शुभोपयोग तो व्यवहारगुप्ति भी नहीं कहलाता।
कालुष्य , संज्ञा, मोह, राग, द्वेषके परिहार से । होती मनगुप्ति श्रमणको कथन नय व्यवहारसे ।। ६६ ।।
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