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नियमसार
१०९
तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति। अत एव प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिंसाव्रतं भवतीति।
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः
(शिखरिणी) "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ। ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः।।''
तथा हि
उनका मरण हो या न हो, प्रयत्नरूप परिणाम बिना सावद्यपरिहार ( दोषका त्याग ) नहीं होता। इसीलिये, प्रयत्नपरायणको हिंसापरिणतिका अभाव होनेसे अहिंसाव्रत होता है।
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें श्री नमिनाथ भगवानकी स्तुति करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
__“[ श्लोकार्थ:-] जगतमें विदित है कि जीवोंकी अहिंसा परम ब्रह्म है। जिस आश्रमकी विधिमें लेश भी आरंभ है वहाँ (-उस आश्रममें अर्थात् सग्रंथपनेमें) वह अहिंसा नहीं होती। इसीलिये उसकी सिद्धिके हेतु, (हे नमिनाथ प्रभु!) परम करुणावंत ऐसे आपश्रीने दोनों ग्रंथको छोड़ दिया (-द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकारके परिग्रहको छोड़कर निग्रंथपना अंगीकृत किया), विकृत वेश तथा परिग्रहमें रत न हुए।”
___और (५६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ):
* मुनिको (मुनित्वोचित) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित )
देहचेष्टादिकसंबंधी शुभोपयोग वह व्यवहार-प्रयत्न है। [शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है; वह शुभोपयोग तो व्यवहार-प्रयत्न भी नहीं कहलाता।]
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