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व्यवहारचारित्र अधिकार
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अथेदानीं व्यवहारचारित्राधिकार उच्यते।
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ।। ५६ ।।
कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम् । तस्यारम्भनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमव्रतम् ।। ५६ ।।
अहिंसाव्रतस्वरूपाख्यानमेतत्।
कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणास्थानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः। अत्र पुनरुक्तिदोषभयान्न प्रतिपादिताः । तत्रैव तेषां भेदान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा।
अब व्यवहारचारित्र अधिकार कहा जाता है 1
गाथा ५६
अन्वयार्थः-[ जीवानाम् ] जीवोंके [ कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ] कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि [ ज्ञात्वा ] जानकर [ तस्य ] उनके [ आरम्भनिवृत्तिपरिणामः ] आरंभसे निवृत्तिरूप परिणाम वह [ प्रथमव्रतम् ] पहला व्रत [ भवति ] है।
टीका:-यह, अहिंसाव्रतके स्वरूपका कथन है ।
कुलभेद, योनिभेद, जीवस्थानके भेद और मार्गणास्थानके भेद पहले ही (४२ वीं गाथाकी टीकामें ही) प्रतिपादित किये गये हैं, यहाँ पुनरुक्तिदोषके भयसे प्रतिपादित नहीं किये गये हैं । वहाँ कहे हुए उनके भेदोंको जानकर उनकी रक्षारूप परिणति ही अहिंसा है।
रे जानकर कुलयोनि, जीवस्थान, मार्गणा जीवके । आरंभ इनके से विरत हो, प्रथमव्रत कहते उसे ।। ५६ ।।
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