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तथा च
नियमसार
( मालिनी )
जयति सहजबोधस्तादृशी दृष्टिरेषा चरणमपि विशुद्धं तद्विधं चैव नित्यम् । अघकुलमलपंकानीकनिर्मुक्तमूर्तिः सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च ।। ७५ ।।
इति
सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीयः श्रुतस्कन्धः।।
और ( यह शुद्धभाव अधिकारकी अन्तिम पाँच गाथाओंकी टीका पुर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ):
[ श्लोकार्थ :- ] सहज ज्ञान सदा जयवंत है, वैसी ( - सहज ) यह दृष्टि सदा जयवंत है, वैसा ही ( - सहज) विशुद्ध चारित्र भी सदा जयवंत है; पापसमूहरूपी मलकी अथवा कीचड़की पंक्तिसे रहित जिसका स्वरूप है ऐसी सहजपरमतत्त्वमें संस्थित चेतना भी सदा जयवंत है । ७५ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान है और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें ( अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रथ मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीका) शुद्धभाव अधिकार नामका तीसरा श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।
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