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________________ १०७ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तथा च नियमसार ( मालिनी ) जयति सहजबोधस्तादृशी दृष्टिरेषा चरणमपि विशुद्धं तद्विधं चैव नित्यम् । अघकुलमलपंकानीकनिर्मुक्तमूर्तिः सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च ।। ७५ ।। इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीयः श्रुतस्कन्धः।। और ( यह शुद्धभाव अधिकारकी अन्तिम पाँच गाथाओंकी टीका पुर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ): [ श्लोकार्थ :- ] सहज ज्ञान सदा जयवंत है, वैसी ( - सहज ) यह दृष्टि सदा जयवंत है, वैसा ही ( - सहज) विशुद्ध चारित्र भी सदा जयवंत है; पापसमूहरूपी मलकी अथवा कीचड़की पंक्तिसे रहित जिसका स्वरूप है ऐसी सहजपरमतत्त्वमें संस्थित चेतना भी सदा जयवंत है । ७५ । इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान है और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें ( अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रथ मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीका) शुद्धभाव अधिकार नामका तीसरा श्रुतस्कंध समाप्त हुआ। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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