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शुद्धभाव अधिकार
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मुखपरमबोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्व: सिद्धपर्यायो भवति। य: परमजिनयोगीश्वर: प्रथमं पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य खलु व्यवहारनयगोचरतपश्चरणं भवति। सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः। स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति।
तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ
( अनुष्टुभ् ) "दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते। स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः।।''
ऐसे अंतर्मुख परमबोध द्वारा और उसरूपसे ( अर्थात् निज परम तत्त्वरूपसे) अविचलरूपसे स्थित होनेरूप सहजचारित्र द्वारा अभूतपूर्व सिद्धपर्याय होती है। जो परमजिनयोगीश्वर पहले पापक्रियासे निवत्तिरूप व्यवहारनयके चारित्रमें होते हैं. उन्हें वास्तवमें व्यवहारनयगोचर तपश्चरण होता है। सहजनिश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामें प्रतपन सो तप है; निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहजनिश्चयचारित्र इस तपसे होता है।
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें (श्रीपद्मनंदी-आचार्यदेवकृत पद्मनंदिपंचविंशतिका नामक शास्त्रमें एकत्वसप्तति नामके अधिकारमें १४वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] आत्माका निश्चय वह दर्शन है, आत्माका बोध वह ज्ञान है, आत्मामें ही स्थिति वह चारित्र है;-ऐसा योग (अर्थात् इन तीनोंकी एकता) शिवपदका कारण है।"
* अभूतपूर्व = पहले कभी न हुआ हो ऐसा; अपूर्व ।
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