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नियमसार
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत्।
भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानरूपं भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढविवर्जितसमुपजनितनिश्चलभक्तियुक्तत्वमेव। विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि च संशयविमोहविभ्रमविवर्जितमेव । तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोह: शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम्। इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम्। अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेऽप्युपचारत: पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति।
अभेदानुपचार-रत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य
श्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांत
टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजपरमतत्त्व
टीका:-यह, रत्नत्रयके स्वरूपका कथन है।
प्रथम, भेदोपचार-रत्नत्रय इस प्रकार है: - विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप ऐसा जो सिद्धि परंपराहेतुभूत भगवंत पंचपरमेष्ठीके प्रति उत्पन्न हुआ चलता - मलिनता - अगाढ़ता रहित निश्चल भक्तियुक्तपना वही सम्यक्त्व है। विष्णुब्रह्मादिकथित विपरीत पदार्थसमूहके प्रति अभिनिवेशका अभाव ही सम्यक्त्व है - ऐसा अर्थ है । संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) ही सम्यग्ज्ञान है। वहाँ, जिन देव होंगे या शिव देव होंगे ( - ऐसा शंकारूपभाव ) वह संशय है; शाक्यादिकथित वस्तुमें निश्चय ( अर्थात् बुद्धादि कथित पदार्थका निर्णय) वह विमोह है; अज्ञानपना ( अर्थात् वस्तु क्या है तत्संबंधी अज्ञानपना) ही विभ्रम है। पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणाम वह चारित्र है । ऐसी भेदोपचार - रत्नत्रयपरिणति है। उसमें, जिनप्रणीत हेय-उपादेय तत्त्वोंका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। इस सम्यक्त्वपरिणामका बाह्य सहकारी कारण वीतरागसर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमें समर्थ ऐसा द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है। जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थनिर्णयके हेतुपने के कारण ( सम्यक्त्वपरिणामके) अंतरंग हेतु कहे हैं, क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिक हैं।
अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक जिसका एक स्वभाव है ऐसे निज परम तत्त्वको श्रद्धा द्वारा, तद्ज्ञानमात्र ( - उस निज परम तत्त्वके ज्ञानमात्रस्वरूप)
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