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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates व्यवहारचारित्र अधिकार ( मालिनी ) त्रसहतिपरिणामध्वांतविध्वंसहेतुः सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो यः । स जयतु जिनधर्म: स्थावरैकेन्द्रियाणां विविधवधविदूरश्चारुशर्माब्धिपूरः।। ७६ ।। रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं । जो जहदि साहु सया बिदियवदं होइ तस्सेव ।। ५७ ।। रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं । यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ।। ५७ ।। सत्यव्रतस्वरूपाख्यानमेतत्। अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा जायते । सदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणामं परित्यजति तस्य द्वितीयव्रतं भवति इति। ११० [ श्लोकार्थ :- ] त्रसघातके परिणामरूप अंधकारके नाशका जो हेतु है, सकल लोकके जीवसमूहको जो सुखप्रद है, स्थावर एकेंद्रिय जीवोंके विविध वधसे जो बहुत दूर है और सुंदर सुखसागरका जो पूर है, वह जिनधर्म जयवंत वर्तता है । ७६ । गाथा ५७ अन्वयार्थः-[ रागेणा वा ] रागसे, [ द्वेषेण वा ] द्वेषसे [ मोहेन वा ] अथवा मोहसे होनेवाले [ मृषाभाषापरिणाम ] मृषा भाषाके परिणामको [ यः साधुः ] जो साधु [ प्रजहाति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको [ सदा ] सदा [ द्वितीयव्रतं ] दूसरा व्रत [ भवति ] है। टीका:-यह, सत्यव्रतके स्वरूपका कथन है। यहाँ (ऐसा कहा है कि ), सत्यका प्रतिपक्ष ( अर्थात् सत्यसे विरुद्ध परिणाम) वह मृषापरिणाम है; वे (असत्य बोलनेके परिणाम ) रागसे, द्वेषसे अथवा मोहसे होते हैं; जो साधु-आसन्नभव्य जीव- उन परिणामोंका परित्याग करता है ( - समस्त प्रकारसे छोड़ता है), उसे दूसरा व्रत होता है। जो राग, द्वेष, रु मोहसेपरिणत हो मृष-भाषका । छोड़े उसे जो साधु होता है उसे व्रत दूसरा ।। ४७ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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