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नियमसार
( शालिनी )
न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकायादन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः । इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम्।। ७४ ।।
हेयोवादेयतच्चाणं ।। ५२ ।।
विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ।। ५१ ।। चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावो णाणं सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ।। ५३ ।। सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं । ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ।। ५४ ।। ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं। णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ।। ५५ ।।
[ श्लोकार्थ :- ] “ शुद्ध जीवास्तिकायसे अन्य ऐसे जो सब पुद्गलद्रव्यके भाव वे वास्तवमें हमारे नहीं हैं” - ऐसा जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूपसे कहते हैं वे अति अपूर्व सिद्धिको प्राप्त होते हैं । ७४।
मिथ्याभिप्राय विहीन जो श्रद्धान वह सम्यक्त्व है ।
संशय, विमोह, विभ्रांति विरहित ज्ञान सुज्ञानत्व है ।। ५१ ।। चल, मल, अगाढ़पने रहित श्रद्धान वह सम्यक्त्व है । आदेय, हेय पदार्थका अवबोध सुज्ञानत्व है ।। ५२ ।। जिनसूत्र समकित हेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो । वह जान अंतर्हेतु जिसके दर्श-मोहक्षयादि हो ।। ५३ ।। सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान अरु चारित्र मोक्ष उपाय है । व्यवहार निश्चयसे अतः चारित्र मम प्रतिपाद्य है ।। ५४ ।। व्यवहारनयचारित्रमें व्यवहारनय तप जानिये । चारित्र निश्चयमें तपश्चर्या नियत नय मानिये ।। ५५ ।।
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