SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धभाव अधिकार ९० ( मालिनी) जयति परमतत्त्वं तत्त्वनिष्णातपद्मप्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम्। हतविविधविकल्पं कल्पनामात्ररम्याद् भवभवसुखदुःखान्मुक्तमुक्तं बुधैर्यत्।। ६३ ।। (मालिनी) अनिशमतुलबोधाधीनमात्मानमात्मा सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम्। निजपरिणतिशाम्भोधिमज्जन्तमेनं भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः।। ६४ ।। (द्रुतविलंबित) भवभोगपराङ्मुख हे यते पदमिदं भवहेतुविनाशनम्। भज निजात्मनिमग्नमते पुनस्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया।। ६५ ।। [ श्लोकार्थ:-] जो तत्त्वनिष्णात (वस्तुस्वरूपमें निपुण) पद्मप्रभमुनिके हृदयकमलमें सुस्थित हैं, जो निर्विकार है, जिसने विविध विकल्पोंका हनन कर दिया है, और जिसे बुधपुरुषोंने कल्पनामात्र-रम्य ऐसे भवभवके सुखोसे तथा दुःखोंसे मुक्त ( रहित) कहा है, वह परमतत्त्व जयवन्त है। ६३। [ श्लोकार्थ:-] जो आत्मा भव्यता द्वारा प्रेरित हो, यह आत्मा भवसे विमुक्त होनेके हेतु निरन्तर इस आत्माको भजो---कि जो (आत्मा) अनुपम ज्ञानके आधीन है, जो सहजगुणमणिकी खान है, जो (सर्व) तत्त्वोंमें सार है और जो निजपरिणतिके सुखसागरमें मग्न होता है। ६४।। [ श्लोकार्थ:-] निज आत्मामें लीन बुद्धिवाले तथा भवसे और भोगसे पराङ्मुख हुए हे यति! तू भवहेतुका विनाश करनेवाले ऐसे इस (ध्रुव) पदको भज; अधुव वस्तुकी चिन्तासे तुझे क्या प्रयोजन है ?। ६५। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy