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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार तथा चोक्तममृताशीतौ (मालिनी) " स्वरनिकरविसर्गव्यंजनाद्यक्षरैर्यद् रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्तसंख्यम्। अरसतिमिररूपस्पर्शगंधाम्बुवायुक्षितिपवनसखाणुस्थूलदिक् चक्रवालम्।।" तथा हि ( मालिनी) दुरघवनकुठारः प्राप्तदुःकर्मपार: परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाब्धिपूरः। हतविविधविकार: सत्यशाब्धिनीर: सपदि समयसारः पातु मामस्तमारः।। ६२ ।। इसीप्रकार ( श्री योगीन्द्रदेवकृत ) अमृताशीतिमें (५७ वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : [ श्लोकार्थ:-] आत्मतत्त्व स्वरसमूह, विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों रहित तथा संख्या रहित है (अर्थात् अक्षर और अंकका आत्मतत्त्वमें प्रवेश नहीं है), अहित रहित है, शाश्वत है, अंधकार तथा स्पर्श, रस, गंध और रूप रहित है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके अणुओं रहित है तथा स्थूल दिक्चक्र ( दिशाओंके समूह) रहित है। और (४३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज सात श्लोक कहते हैं) : [श्लोकार्थ:-] जो ( समयसार ) दुष्ट पापोंके वनको छेदनेका कुठार है, जो दुष्ट कर्मोंके पारको प्राप्त हुआ है ( अर्थात् जिसने कर्मोंका अन्त किया है), जो परपरिणतिसे दूर है, जिसने रागरूपी समुद्रके पूरको नष्ट किया है, जिसने विविध विकारोंका हनन कर दिया है, जो सच्चे सुखसागरका नीर है और जिसने कामको अस्त किया है, वह समयसार मेरी शीघ रक्षा करो। ६२। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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