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नियमसार
( द्रुतविलंबित) समयसारमनाकुलमच्युतं जननमृत्युरुजादिविवर्जितम्। सहजनिर्मलशर्मसुधामयं समरसेन सदा परिपूजये ।। ६६ ।।
( इंद्रवज्रा )
इत्थं निजज्ञेन निजात्मतत्त्वमुक्तं पुरा सूत्रकृता विशुद्धम् । बुवा च यन्मुक्तिमुपैति भव्यस्तद्भावयाम्युतमशर्मणेऽहम् ।। ६७ ।।
(वसंततिलका)
आद्यन्तमुक्तमनधं परमात्मतत्त्वं निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम्। तद्भावनापरिणतो भुवि भव्यलोक: सिद्धिं प्रयाति भवसंभवदुःखदूराम्।। ६८ ।।
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[ श्लोकार्थ :- ] जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म - मृत्यु - रोगादि रहित है, सहज निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसारको मैं समरस ( समताभाव ) द्वारा सदा पूजता हूँ। ६६ ।
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[ श्लोकार्थ :- ] इसप्रकार पहले निजज्ञ सूत्रकारने ( आत्मज्ञानी सूत्रकर्ता श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवने ) जिस निजतत्त्वका वर्णन किया और जिसे जानकर भव्य जीव मुक्तिको प्राप्त करते हैं, उस निजात्मतत्त्वको उत्तम सुखकी प्राप्तिके हेतु मैं भाता हूँ । ६७।
[ श्लोकार्थ:-] परमात्मतत्त्व आदि-अंत रहित है, दोष रहित है, निर्द्वद्व है और अक्षय विशाल उत्तम ज्ञानस्वरूप है । जगतमें जो भव्य जन उसकी भावनारूप परिणमित होते हैं, वे भवजनित दुःखोंसे दूर ऐसी सिद्धिको प्राप्त करते हैं । ६८ ।
* अच्युत
अस्खलित; निज स्वरूपसे न हटा हुआ ।
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