SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८९ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभेदाद्दर्शनानि त्रीणि, कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदाल्लब्धयः पञ्च, वेदकसम्यक्त्वं, वेदकचारित्रं, संयमासंयमपरिणतिश्चेति । औदयिकभावस्य नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदाद् गतयश्चतस्रः क्रोधमानमायालोभभेदात् कषायाश्चत्वारः, स्त्रीपुंनपुंसकभेदाल्लिङ्गानि त्रीणि, सामान्यसंग्रहनयापेक्षया मिथ्यादर्शनमेकम्, अज्ञानं चैकम्, असंयमता चैका, असिद्धत्वं चैकम्, शुक्लपद्मपीतकापोतनीलकृष्णभेदाल्लेश्याः षट् च भवन्ति। पारिणामिकस्य जीवत्वपारिणामिक:, भव्यत्वपारिणामिकः, अभव्यत्वपारिणामिकः, इति त्रिभेदाः । अथायं जीवत्वपारिणामिकभावो भव्याभव्यानां सदृश:, भव्यत्वपारिणामिकभावो भव्यानामेव भवति, अभव्यत्वपारिणामिकभावोऽभव्यानामेव भवति । इति पंचभावप्रपंचः । पंचानां भावानां मध्ये क्षायिकभावः कार्यसमयसारस्वरूपः स त्रैलोक्य प्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरत्वोपार्जितसकलविमल चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ऐसे भेदोंके कारण दर्शन तीन; काललब्धि, करणलब्धि, उपदेशलब्धि, उपशमलब्धि और प्रायोग्यतालब्धि ऐसे भेदोंके कारण लब्धि पाँच; वेदकसम्यकत्व; वेदकचारित्र और संयमासंयमपरिणति । औदयिकभावके इक्कीस भेद इसप्रकार हैं: नारकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति ऐसे भेदोंके कारण गति चार; क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय ऐसे भेदोंके कारण कषाय चार; स्त्रीलिंग पुंलिंग और नपुंसकलिंग ऐसे भेदोंके कारण लिंग तीन; सामान्यसंग्रहनयकी अपेक्षासे मिथ्यादर्शन एक अज्ञान एक और असंयमता एक; असिद्धत्व एक; शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या, पीतलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णलेश्या ऐसे भेदोंके कारण लेश्या छह । पारिणामिकभावके तीन भेद इसप्रकार हैं: जीवत्वपारिणामिक, भव्यत्व - पारिणामिक और अभव्यत्वपारिणामिक। यह जीवत्वपारिणामिकभाव भव्योंको तथा अभव्योंको समान होता है; भव्यत्वपारिणामिकभाव भव्योंको ही होता है; अभव्यत्व - पारिणामिकभाव अभव्योंको ही होता है। इसप्रकार पाँच भावोंका कथन किया । पाँच भावोंमें क्षायिकभाव कार्यसमयसारस्वरूप है; वह ( क्षायिकभाव ) त्रिलोकमें 'प्रक्षोभके हेतुभूत तीर्थंकरत्व द्वारा प्राप्त होनेवाले सकल-विमल १ प्रक्षोभ = खलबली । तीर्थंकरके जन्मकल्याणकादि प्रसंगों पर तीन लोकमें आनंदमय खलबली होती है। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy