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शुद्धभाव अधिकार
केवलावबोधसनाथतीर्थनाथस्य भगवतः सिद्धस्य वा भवति। औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकभावाः संसारिणामेव भवन्ति, न मुक्तानाम्। पूर्वोक्तभावचतुष्टयमावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणम्। त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजननिजपरमपंचमभावभावनया पंचमगतिं मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति।
(आर्या) अंचितपंचमगतये पंचमभावं स्मरन्ति विद्वान्सः। संचितपंचाचाराः किंचनभावप्रपंचपरिहीणाः।। ५८ ।।
(मालिनी) सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं । भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः।। ५९ ।।
केवलज्ञानसे युक्त तीर्थनाथ को (तथा उपलक्षणसे सामान्य केवलीको) अथवा सिद्धभगवानको होता है। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव संसारियोंको ही होते हैं, मुक्त जीवोंको नहीं।
पूर्वोक्त चार भाव आवरणसंयुक्त होनेसे मुक्तिका कारण नहीं हैं। त्रिकाल निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन निज परम पंचमभावकी (-पारिणामिकभावकी) भावनासे पंचमगतिमें मुमुक्षु (वर्तमान को में) जाते हैं, (भविष्य कालेमें) जायेंगे और ( भूत कालेमें) जाते थे।
[अब ४१ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं: ]
[ श्लोकार्थ:-] ( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप) पाँच आचारोंसे युक्त और किंचित भी परिग्रहप्रपंचसे सर्वथा रहित ऐसे विद्वान पूजनीय पंचमगतिको प्राप्त करनेके लिये पंचमभावका स्मरण करते हैं। ५८।
[श्लोकार्थ:-] समस्त सुकृत (शुभ कर्म) भोगियोंके भोगका मूल है; परम तत्त्वके अभ्यासमें निष्णात चित्तवाले मुनीश्वर भवसे विमुक्त होने हेतु उस समस्त शुभ कर्मको छोड़ो और सारतत्त्वस्वरूप ऐसे उभय समयसारको भजो। इसमें क्या दोष है ? । ५९ ।
१-समयसार सारभूत तत्त्व है।
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