SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धभाव अधिकार ७६ णो खलु सहावठाणा णो माणवमाणभावठाणा वा। णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा।।३९ ।। न खलु स्वभावस्थानानि न मानापमानभावस्थानानि वा। न हर्षभावस्थानानि न जीवस्याहर्षस्थानानि वा।। ३९ ।। निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत्। त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वभावस्थानानि। प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि। न खलु शुभपरिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान्न संसारसुखं, संसारसुखस्याभावान्न हर्षस्थानानि। न चाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति। गाथा-३९ अन्वयार्थ:-[ जीवस्य] जीवको [खलु] वास्तवमें [न स्वभावस्थानानि] स्वभावस्थान [-विभावस्वभावनां स्थानो] नहीं है, [ न मानापमानभावस्थानानि वा] मानापमानभावके स्थान नहीं हैं, [ न हर्षभावस्थानानि ] हर्षभावके स्थान नहीं हैं [ वा] या [ न अहर्षस्थानानि ] अहर्षके स्थान नहीं हैं। टीका:-यह, निर्विकल्प तत्त्वके स्वरूपका कथन है। त्रिकाल-निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे शुद्ध जीवास्तिकायको वास्तवमें विभावस्वभावस्थान (-विभावरूप स्वभावके स्थान) नहीं हैं; (शुद्ध जीवास्तिकायको) प्रशस्त या अप्रशस्त समस्त मोह-राग-द्वेषका अभाव होनेसे मान-अपमानके हेतुभूत कर्मोदयके स्थान नहीं हैं; (शुद्ध जीवास्तिकायको) शुभ परिणतिका अभाव होनेसे शुभ कर्म नहीं है, शुभ कर्म का अभाव होनेसे संसारसुख नहीं है, संसार-सुखका अभाव होनेसे हर्षस्थान नहीं हैं; और (शुद्ध जीवास्तिकायको) अशुभ परिणतिका अभाव होनेसे अशुभ कर्म नहीं है, अशुभ कर्मका अभाव होनेसे दुःख नहीं है, दुःखका अभाव होनेसे अहर्षस्थान नहीं हैं। [ अब ३९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :] मानापमान, स्वभावके नहिं स्थान होते जीव के। होते न हर्ष स्थान भी, नहिं स्थान और अहर्ष के।। ३९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy