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नियमसार
७५
पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिन-योगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा। औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद् द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनित विभावगुणपर्यायरहितः,अनादिनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजपरमपारिणामिकभावस्वभाव कारणपरमात्मा ह्यात्मा। अत्यासन्नभव्यजीवानामेवंभूतं निजपरमात्मानमन्तरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति।
(मालिनी) जयति समयसार: सर्वतत्त्वैकसारः सकलविलयदूरः प्रास्तदुरिमारः। दुरिततरुकुठारः शुद्धबोधावतार: सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः।। ५४ ।।
पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिनयोगीश्वर है, स्वद्रव्यमें जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि है-ऐसे आत्माको “आत्मा” वास्तवमें उपादेय है। औदयिक आदि चार भावांतरोंको अगोचर होनेसे जो (कारणपरमात्मा) द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप उपाधिसे जनित विभावगुणपर्यायों रहित है, तथा अनादि-अनंत अमूर्त अतींद्रियस्वभाववाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिकभाव जिसका स्वभाव है-ऐसा कारणपरमात्मा वह वास्तवमें " आत्मा” है। अति-आसन्न भव्यजीवोंको ऐसे निज परमात्माके अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है।
[अब ३८ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं: ]
[ श्लोकार्थ:-] सर्व तत्त्वोंमें जो एक सार है, जो समस्त नष्ट होने योग्य भावोंसे दूर है, जिसने दुर्वार कामको नष्ट किया है, जो पापरूप वृक्षको छेदनेवाला कुठार है, जो शुद्ध ज्ञानका अवतार है, जो सुखसागरकी बाढ़ है और जो क्लेशोदधिका किनारा है, वह समयसार ( शुद्ध आत्मा) जयवंत वर्तता है। ५४।
१। भावांतर = अन्य भाव। [औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक-यह चार
भाव परमपारिणामिकभावसे अन्य होनेके कारण उन्हें भावांतर कहा है। परमपारिणामिकभावसे जिसका स्वभाव है ऐसा कारणपरमात्मा इन चार भावांतरोंको अगोचर है।]
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