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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ७७ ( शार्दूलविक्रीडित) प्रीत्यप्रीतिविमुक्तशाश्वतपदे निःशेषतोऽन्तर्मुखनिर्भदोदितशर्मनिर्मितवियद्विम्बाकृतावात्मनि। चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषे प्रेक्षावतां गोचरे बुद्धिं किं न करोषि वाञ्छसि सुखं त्वं संसृतेर्दुष्कृतेः।। ५५ ।। णो ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा। णो अणुभागट्ठाणा जीवस्स ण उदयठाणा वा।। ४० ।। न स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा। नानुभागस्थानानि जीवस्य नोदयस्थानानि वा।। ४० ।। अत्र प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धोदयस्थाननिचयो जीवस्य न समस्तीत्युक्तम्। नित्यनिरुपरागस्वरूपस्य निरंजननिजपरमात्मतत्त्वस्य [ श्लोकार्थ:-] जो प्रीति-अप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अंतर्मुख और प्रगट प्रकाशमान ऐसे सुखका बना हुआ, नभमंडल समान आकृत है, चैतन्यामृतके पूरसे भरा हुआ जिसका स्वरूप है, जो विचारवंत चतुर पुरुषोंको गोचर है-ऐसे आत्मामें तू रुचि क्यों नहीं करता और दुष्कृतरूप संसारके सुखकी वांछा क्यों करता है। ५५। गाथा ४० अन्वयार्थ:-[ जीवस्य ] जीवको [न स्थितिबंधस्थानानि] स्थितिबंधस्थान नहीं हैं, [प्रकृतिस्थानानि] प्रकृतिस्थान नहीं हैं, [प्रदेशस्थानानि वा] प्रदेशस्थान नहीं हैं, [न अनुभागस्थानानि ] अनुभागस्थान नहीं हैं [ वा ] अथवा [न उदयस्थानानि ] उदयस्थान नहीं हैं। टीका:-यहाँ (इस गाथामें) प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंधके स्थानोंका तथा उदयकें स्थानोंका समूह जीवको नहीं है ऐसा कहा है। सदा *निरुपराग जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन (निर्दोष ) निज परमात्मतत्त्वको १-अकृत- किसीसे नहीं किया गया। [ जिसप्रकार आकाशको किसी ने बनाया नहीं; उसी प्रकार आत्माको किसीने नहीं बनाया है; आत्मा अंतर्मुख प्रगट अतीन्द्रिय सुखका पिण्ड है, स्वयंसिद्ध शाश्वत है।] * निरुपराग का अर्थ पृष्ठ ७९ पर देखें नहिं प्रकृतिस्थान-प्रदेश स्थान न और स्थिति-बंधस्थान नहिं। नहिं जीव के अनुभागस्थान तथा उदयकें स्थान नहिं।। ४०।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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