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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ ३८ इस तरह आपके साथ उनका एकीभाव नहीं है । तात्पर्य यह है कि ज्ञाता सदा ज्ञाता रहता है और ज्ञेय सदा ज्ञेय रहता है । ज्ञाता, ज्ञेय नहीं और ज्ञेय, ज्ञान नहीं होता। दोनोमें ज्ञातृ - ज्ञेय सम्बन्ध ही है, तादात्म्य सम्बन्ध नहीं। [ स्तुति-९ श्लोक-१८, पृष्ठ-१०७ ] [1] भावार्थ- ......उपर्युक्त शुद्ध स्वभावमें आप - सदा स्थिर रहते हैं। आप यद्यपि अनेक गुणोसे परिपूर्ण हैं अथवा केवलज्ञानसे युक्त हैं और उसके कारण अनन्त ज्ञेय आपके भीतर प्रतिफलित हैं तो भी आप सङ्कर नहीं हैं - उन ज्ञेयो के साथ तन्मयताको प्राप्त नहीं है ।.... [ स्तुति १०, श्लोक - २३, पृष्ठ- १२१ ] [ 1 ] भावार्थ- ....आप अनन्त ज्ञेयों के विकल्पसे युक्त हैं- अनन्त पदार्थों के प्रतिबिम्ब आपके ज्ञानमें दर्पणके समान झलकते हैं। [ स्तुति-१२, श्लोक - ६, पृष्ठ- १३३ ] [A] अन्वयार्थ- हे भगवन् ! जिसके स्वभाविक तथा निर्मल चैतन्य स्वभावमें समस्त पदार्थोंका समूह प्रतिबिम्बित हो रहा है, जो निज और परके प्रकाश समूहकी भावना से तन्मय है और अकृत्रिम है किसीका किया हुआ नहीं है एसा आपका वह कोई अद्भूत ज्ञान शरीर सुशोभित हो रहा है। भावार्थ- हे भगवन्! आप ज्ञान शरीर है अर्थात् ज्ञान ही आपका शरीर है। वह ज्ञान सहज है-स्वाभाविक होनेसे सदाकाल आपके साथ रहनेवाला है। पहले मिथ्यात्वदशामें वह ज्ञान मलिन हो रहा था, परन्तु अब मिथ्यात्वके नष्ट हो जाने के कारण अत्यन्त प्रमार्जित है- निर्मल हो गया है। उस ज्ञानमें स्वभावसे ही लोक अलोक के समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित हो रहें हैं। क्यों हो रहें हैं ? इसका उत्तर यह है कि वह स्व पर प्रकाशक भावना से तन्मय है। उसकी यह विशेषता है कि उसमें निज और पर पदार्थोंका प्रतिफलन स्वयमेव होता है। वह अकृत्रिम है - किसीका किया हुआ नहीं है तथा वचनों के अगोचर है - अनुभवमें तो आता है परन्तु वचनों के द्वारा कहा नहीं जा [ स्तुति-१३, श्लोक-१, पृष्ठ-१४१ ] सकता। [A] भावार्थ- पर्याय की दृष्टि से संसार के अन्तानन्त पदार्थ अपने क्रम से उत्पन्न और विनाशका यह क्रम अनादि कालसे चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। ये सब पदार्थ आपके ज्ञानमें प्रतिबिम्बित हो रहे है। इसलिये ज्ञेय की अपेक्षा आप सर्वत्र लोक अलोकमें विस्तारको प्राप्त हैं। साथ ही यह चैतन्य चमत्कार सब ओर छलक रहा है सभी और के पदार्थों को - प्रतिभासित कर रहा है। यद्यपि अमूर्तिक होने से यह चमत्कार हमारे दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है तथापि अनुभूतिका विषय अवश्य है, हमारी अनुभवमें यह आ
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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