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________________ ४० [.] [.] મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ रहा है कि आपके चैतन्य गुणका सर्वोत्कृष्ट विकास हुआ है। [स्तुति-१३, श्लोक-२, पृष्ठ-१४२] भावार्थ- ..... आत्मा स्वका ही ज्ञायक है परका नहीं' इस एकान्त मान्यताका खंण्डन करते हुए आचार्यने सिद्ध किया है कि आत्मा जिस प्रकार स्वका ज्ञायक उसी प्रकार परका भी ज्ञायक है। यह जुदि बात है कि जिस प्रकार दर्पणमें प्रतिबिम्बित घट-पटादि पदार्थ दर्पणरूप हो जाते हैं उसी प्रकार आत्मा प्रतिबिम्बित-विकल्पको प्राप्त हुए अचेतन - आत्मातिरिक्त पदार्थ आत्मारूप हो जाते है और आत्मा उन्हींको जानता है, इसलिये आत्मा आत्माका ही ज्ञायक है परका नहीं। परन्तु आत्मामें पडनेवालें उन विकल्पोंका कारण अन्य पदार्थ ही हैं, अतः उनका भी ज्ञाता आत्मा ही है, अन्य जड पदार्थ नहीं। [स्तुति-१३,श्लोक-७, पृष्ठ-१४४ ] अन्वयार्थ- ज्ञान - दर्शन के भेद से विविधरूपता को प्राप्त चैतन्यके उद्गमस्वरूप होने के कारण आपके शरीरके प्रतिबिम्बकी कथा करना व्यर्थ ही है एक सर्वज्ञदशा के प्रगट होने के अनन्तर तो एक साथ अनुभूतिको प्राप्त होने वाला समस्त विश्व भी है। निश्चय से आपकी प्रतिमा प्रतिबिम्बि है। भावार्थ- हे भगवन्! परमार्थ से ज्ञान, दर्शन, सुख , वीर्य आदि रूप जो चैतन्यका परिणमन है वही आपका स्वरूप है अत: आपके शरीर के प्रतिबिम्ब की चर्चा करना व्यर्थ है परन्तु आपकी आत्मामें एक साथ प्रतिफलित होने वाले अनन्तानन्त पदार्थों की ओर लक्ष्य देकर जब चर्चा की जाती है तब ऐसा लगता है कि यह समस्त विश्व ही आपकी प्रतिमा है। ज्ञेय- पदार्थका जब ज्ञानमें विकल्प आता है तब ज्ञान, ज्ञेयाकार हो जाता है एसा व्यवहार है, इसी व्यवहार के अनुसार आपके ज्ञानमें समस्त विश्वका विकल्प आ रहा है अत: आपका ज्ञान विश्वाकार हो रहा है। यद्यपि परमार्थ से न ज्ञान ज्ञेयरूप होता है ओर न ज्ञेय, ज्ञानरूप होता है तथापि व्यवहारसे एसा वर्णन होता है कि ज्ञेय को जानने के कारण ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाता है ओर ज्ञेय, ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होने से ज्ञानाकार हो जाता है। [स्तुति-१४ , श्लोक-१९, पृष्ठ-१६०] भावार्थ- ......भाव यह है कि जिस प्रकार दर्पणमें पदार्थों का प्रतिबिम्ब पडता है। परन्तु प्रतिबिम्ब पड़ने पर भी क्या पदार्थ दर्पणके भीतर प्रविष्ट हो जाते है ? नहीं। पदार्थ अपने स्थान पर रहते हैं, मात्र उनके सम्मुख स्थित होने से दर्पणका पदार्थाकार परिणमन हो जाता है। परमार्थ से दर्पण, दर्पण रहता है और पदार्थ, पदार्थ रहते हैं। इसी प्रकार ज्ञानगुण की स्वच्छताके कारण पदार्थों का प्रतिबिम्ब [.]
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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