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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ ૨૩ लघुतत्त्वस्फोट अपरनाम शक्ति मणितकोश श्रीमद् आचार्य अमृतचंद्र सूरिकृत डॉ. उतमचंदजी शिवनीकृत [.] [प्रथम स्तुति] अन्वयार्थ- हे धर्मनाथ जिनेन्द्र! आप [ सर्वात्मक असि] सर्वात्मक हैंसमस्त पदार्थ आपकी आत्मामें प्रतिबिम्बित हैं, तो भी आप [परात्मक:] पररुप [जातु न असि] कभी नहीं हैं। [प्रथम स्तुति, छंद नं-१५, पृष्ठ-१३ ] [.] अन्वयार्थ- हे नमिनाथ जिनेन्द्र! आप केवलज्ञानकी अपेक्षा समस्त लोकालोक में व्याप्त होकर भी आत्मप्रदेशों की अपेक्षा व्याप्त नहीं है! तथा व्याप्त न होकर भी निरन्तर तीनों लोक को अपने ज्ञानमें अन्तर्गत प्रतिबिम्बित करने वाले हैं! [स्तुति-१, छंद नं-२१, पृष्ठ-१८ ] [.] भावार्थ- .... जगत् के प्रत्येक पदार्थ में उत्पादव्यय तथा ध्रौव्यरूप परिणमन होता है! वह परिणमन केवलज्ञान में झलकता है अत: वह केवलज्ञान अपनी ही ज्ञानक्रिया का कर्ता है। [स्तुति-१,छंद नं-२४ , पृष्ठ-२१] [.] अन्वयार्थ- “हे जिनेन्द्र ! [ निमग्नविश्वे ] जिसमें समस्त संसार निमग्न है-ज्ञेय बनकर प्रतिबिम्बित हो रहा है, [ विश्वातिशायि महसि] जिसका तेज सबको अतिक्रान्त करनेवाला है.... [स्तुति-२, छंद नं-११, पृष्ठ-३४] भावार्थ- हे भगवन् ! आपका केवलज्ञान सागरके समान महान है, आपने उस केवलज्ञान सागरको पूर्णत: निजात्मस्वभाव--ज्ञायकस्वभाव में लगा दिया है, निमग्नकर दिया हैं, मानो चुल्लूभर पानी की तरफ चूंट के रुप में पी लिया है। उस केवलज्ञान की लहरों में संपूर्ण विश्व प्रतिबिम्बित होता है इसलिए आप सर्वज्ञ हैं तथापि वह केवलज्ञान असंख्यात् प्रदेशी आत्मस्वभावकी मर्यादा से बाहर कदापि नहीं जाता, अत: वास्तव में आप आत्मज्ञ हैं। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव का पूर्णज्ञान निश्चय से आत्मज्ञ ही है, कयोंकि वह आत्मा को तन्मय होकर जानता है तथा व्यवहार से वह ज्ञान सर्वज्ञ है, कयोंकि वह समस्त लोकालोक के ज्ञेयपदार्थो को अतन्मय–भिन्न रहकर जानता है। यहाँ आत्मज्ञपना ही स्वप्रकाशकपना है तथा सर्वज्ञपना ही परप्रकाशकपना हैं। इस तरह आत्मा का स्वभाव ही स्व–पर प्रकाशक है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामीने नियमसार गाथा १५९ [१५८ ] में यही भाव व्यक्त किया है। [ स्तुति-र छंद नं-१५, पृष्ठ-३७] [.] अन्वयार्थ- जिसके भीतर [ उन्मिषदनन्तं] प्रकटित होते हुए अनन्त पदार्थों से युकतं तथा [अनन्तरुपसंकीर्णमहिम्] अनन्तरुपों से संकीर्ण एवं पूर्ण महिमा वाला [ विश्वम् ] लोकालोक [प्रतिभाति] प्रतिभासित होता है। [ ]
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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