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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ आश्चर्य कहै हैं जो शुद्ध द्रव्यके निरुपण विर्षे लगाई है बुद्धि जाने बहुरि तत्त्व कू अनुभवता है ऐसा पुरुष के एक द्रव्य विर्षे प्राप्त भया अन्य कुछ भी न कदाचित प्रतिभासे है। बहुरि ज्ञान है सो अन्य ज्ञेय पदार्थं • जाने है सो यह ज्ञानका शुध्ध स्वभावका उदय है, सो यह जन लोक है ते अन्य द्रव्य के ग्रहण विषे आकुल है बुद्धि जिनकी ऐसै भये संते शुद्ध स्वरुप क्यों चिगे है ? भावार्थ- शुद्धनयकी दृष्टिकरी तत्त्वका स्वरुप विचारतै अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य विर्षे प्रवेश नाही दिखे है। अर ज्ञान विर्षे अन्य द्रव्य प्रतिभासे है सो यह ज्ञानकी स्वच्छता का स्वभाव है। सो ज्ञान तिनिकू ग्रहण न किये है। अर यह लोक अन्य द्रव्य का ज्ञान विर्षे प्रतिभास देखि अर अपना ज्ञान स्वरुपतै छूटि अर ज्ञेय के ग्रहण करने की बुद्धि करै है सो यह अज्ञान है। [ सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार कलश-२२, पृष्ठ-१४७] [.] जैसे चांदगी पृथ्वीकू उज्जवल करै है परन्तु चांदगी की पृथ्वी किछू होय नाहीं है। तैसे ज्ञान ज्ञेयकू जानै है परन्तु ज्ञानका ज्ञेय किछु होय नाहीं। आत्माका ज्ञान स्वभाव है सो याकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकते है। [कलश-२३, पृष्ठ-१४८] [.] विशेष- संस्कृत टीकाकारने ‘बोधतामेति बोध्ये' यह मानकर जब तब ज्ञान प्रकटित नहि हो जाता तब तक वह स्वपर ज्ञेय पदार्थों को प्रकाशित नहीं करता किंतु प्रगट होने पर ही प्रकाशित करता है-यह अर्थ किया है और पं. जयचंद्रजीने ‘बोध्यतां याति बोध्यः' यह पाठ मानकर-'जब तक ज्ञेय पदार्थ ज्ञेयरुप से प्रतिभासित नहीं होता'-यह अर्थ किया है। [कलश-२४, पृष्ठ-१४९ ] [.] अनुभव करते ज्ञानमात्र अनुभवै। तब बाह्य ज्ञेय तौ न्यारे ही ज्ञानमैं पैठे नाहीं बहुरि ज्ञेयनिके आकार ही झलके ज्ञान में है। सो ज्ञान भी ज्ञेयाकाररुप दिखे है ए ज्ञानके कल्लोल हैं। सो ऐसा ज्ञानरुप भी ज्ञानका स्वरुप है। [ कलश-७८, पृष्ठ-१६१] [.] केवलज्ञान में सर्व पदार्थ झलकै हैं ते अनेक ज्ञेयाकाररुप दिखे हैं तौऊ चैतन्यरुप ज्ञानाकार की दृष्टिमें एक ही स्वरुप हैं। [कलश-८२, पृष्ठ-१६४] III
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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