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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ भावार्थ- तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में ही अनन्त वीर्य तथा अनन्ततेजअनंतज्ञान प्रकट होते हैं । उस अनन्तज्ञान में लोकालोकके समस्त पदार्थ अपने अनन्तगुणों व पर्यायों सहित झलकतें हैं। [ स्तुति-३, छंद-१९, पृष्ठ-६०-६१ ] [1] भावार्थ- चेतन-अचेतन सभी पदार्थ सर्वज्ञ आत्मामें प्रतिबिम्बित होने के कारण परस्पर मिले हुए प्रतीत होते हैं तथापि वे कभी भी अपने-अपने वस्तु स्वभावको नहीं छोडते अत: सदा ही पृथक् पृथक् रहते हैं। वे पदार्थ चैतन्यरुप आरती के प्रकाशमें पवित्र रहते हुए केवलज्ञान स्वभाव में प्रवेश करते हैं- झलकते हैं। [ स्तुति-४, छंद-१०, पृष्ठ-७४ ] ૨૪ [A] भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! समस्त परद्रव्योंसे भिन्न रहकर भी आप समस्त परद्रव्यों को जानते हैं अथवा समस्त परपदार्थ आपके ज्ञानमें झलकते हैं। उनके झलकने, प्रतिबिम्बित होने या जानने मात्र से आपका ज्ञायक स्वभावी आत्मा दूषित नहीं होता, अपितु ज्ञायक तो ज्ञायक ही रहता है, ज्ञान - ज्ञान ही रहता है, ज्ञेय नहीं बन जाता । जिस प्रकार दर्पणतल पर अनेक पदार्थ झलकतें हैं तथापि दर्पणतल दूषित नहीं होता, दर्पण दर्पण ही रहता है, इसी प्रकार अनन्त पर पदार्थों को झलकाने पर भी चेतना सदा चेतना ही रहती है। [ स्तुति-४, छंद-२१, पृष्ठ-८२ ] [A] भावार्थ- हे जिनेन्द्र देव ! बाह्य पदार्थों - ज्ञेयोंकी झलक आपके ज्ञानको विकसित करती हुई सुशोभित होती है। यह निमित्तापेक्षा कथन है, वास्तवमें तो ज्ञान अपनी प्रगटती हुई पर्याय सामर्थ्य से विकसित होता है, निमित्तरुप ज्ञेयों से नहीं। फिर भी ज्ञानकी सामर्थ्य पूर्णत: विकसित हुई -- यह समस्त ज्ञेयोंकी झलक से ही जाना जाता है, इसलिए ज्ञेयोंसे ज्ञान विकसित हुआ एसा व्यवहार कथन करके जिनेन्द्र की स्तुति की है । [ स्तुति-४, छंद-२३, पृष्ठ-८३ ] [1] भावार्थ- हे प्रभो ! आपकी ज्ञानसत्ता स्वयं सिद्ध है। वह विश्वके समस्त पदार्थों की अपेक्षा बिना ही प्रवृत है। ज्ञानसत्ता ज्ञायकद्रव्य की मर्यादा से बाहर नहीं जाती अत: वह परपदार्थोको कभी भी छूती नहीं है, फिर भी ज्ञानसत्तामें जो परपदार्थो का प्रतिबिम्बित होना पाया जाता है, वह ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञानसत्ता का ही होने से समस्त पर पदार्थ भी चैतन्यरुप सुशोभित होते हैं। [ स्तुति - ६, छंद - ६, पृष्ठ-९१ ] [A] भावार्थ- यहाँ स्तुतिकार आचार्य कहते हैं कि हे जिनेन्द्र! अर्थसत्ता अर्थात् अवान्तरसत्ता अर्थसमूह अर्थात् महासत्ता को छोडकर भिन्न प्रगट नहीं होती। इस प्रकार यह अभेद विविक्षा से कथन किया है। भेद विविक्षा में दोनों सत्ता पृथक ग्रहण की जाती हैं। आपका ज्ञान समस्त परपदार्थो को ज्ञेयाकार
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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