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________________ ૧૯ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ ज्ञेय है ज्ञान के अन्दर प्रतिभासित होते रहते हैं ज्ञान का भी कार्य जानने का है अत: वह अपने स्वभाव से सभी पदार्थों को जानता ही रहता है इस दृष्टि से ज्ञान की अपेक्षा आत्मा सर्व व्यापक है। उसकी यह सर्व व्यापकता स्वभावगत होने से अक्षुण्ण है। [गाथा-६, पंक्ति -२२, पृष्ठ-१३ ] [.] ....ऐसा द्वेत प्रतिभासित-ज्ञान-मालूम नहीं होता है, ग्रन्थान्तरमें ऐसा ही कहा गया है।.... प्रमाणनय निक्षेपा अर्वाचीनपदे स्थिताः। केवले च पुनस्तस्मिंस्तदेकं प्रतिभासताम ।। अर्थात अर्वाचीनपद पृथक्-पृथक् पद में स्थित रहने वाले प्रमाण, नय, निपेक्ष पृथक्-पृथक् प्रातिभासित हैं किन्तुं केवलज्ञान स्वरूप उस परमात्माज्योति के प्रतिभासित होने पर तो वही एक उत्कृष्ट परमज्योति ही प्रकाशित रहे। अन्य प्रमाण , नय, निक्षेप आदि-कोई भी प्रतिभासित न हों। [गाथा-९, पंक्ति -१७, पृष्ठ-१८ ] [.] भावार्थ- .....तात्पर्य यह है कि आत्मा जब परिपूर्ण निरावरण केवलज्ञानसे सम्पन्न होता है तब उसमें लोकत्रयवर्ती अनन्तानन्त पदार्थ अपनी त्रिकाल सम्बन्धी अनन्तानन्त पदार्थों के साथ युगपत् एक ही कालमें प्रतिबिम्बित होते हैं। उनके प्रतिबिम्बित होने पर भी आत्मा अपने स्वरूप में ही निमग्न रहता है। आत्मा का स्वभाव ज्ञायक है और ज्ञेयों का स्वभाव ज्ञेयरूप से ज्ञान में प्रतिबिम्बित झलकते रहना है। दोनों अपने - अपने स्वभाव में ही रहते हैं। एक दूसरे में बाधा नहीं पहुचाते है। [गाथा-३३, पंक्ति -१८, पृष्ठ-५१] [.] भावार्थ- जीव के चैतन्य लक्षण से अजीव का लक्षण जड़ता सर्वथा भिन्न है अर्थात् अजीव जड है अचेतन है अतएव वह जीव से त्रिकाल भिन्न है यह ज्ञानी के ज्ञान में प्रतिभासित होता रहता है। यह बड़े आश्चर्य और खेद का विषय है कि अज्ञानी –जीव और अजीव में पार्थक्य का निर्णय नहीं कर पाता है उसका मोह प्रतिक्षण वृद्धिङ्गत होता है जो उसे अज्ञानके चक्र में चलाता रहता है। [गाथा-४३, पंक्ति -६, पृष्ठ-६४ ] [.] अन्वयार्थ- ......ऐसी स्थिति में कर्ताकर्म को वेष धारण करनेवाले जीव और पुद्गल अपने विकृत वेष को छोडकर स्वभाव में स्थिर होकर मात्र ज्ञाता ज्ञेयरूपमें प्रतिभाषित होने लगते है जो वास्तविकता की चरमसीमा है और है वस्तुतलस्पर्शी यथार्थता। [गाथा-५४ , पंक्ति -२६, पृष्ठ-११८ ] [.] भावार्थ- शुद्ध नयानुसारी आत्मदृष्टि महात्मा के रागादि भावों का मूलोच्छेद होने पर ऐसा अविकल निरावरण अचिन्त्य महात्म्य युक्त अनन्त ज्ञानरूपी
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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