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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ है। किन्तु रागरूप से उसका ग्रहण करनेवाला नहीं होता। [श्लोक-२२५, पंक्ति -६ , पृष्ठ-२१७] [.] ...इसलिये स्वाभाविक परमानन्द सुख में सन्तुष्ट होकर नाना प्रकार के पानक के विषय में परिग्रह रहित होता हुआ ज्ञानी जीव तो दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान वस्तुस्वरूप से उस पानक का ज्ञायक ही होता है- राग से उसका ग्राहक नहीं होता। [श्लोक-२२६ , पंक्ति -१, पृष्ठ-२१८ ] [धर्मद्रव्यने 19ीने अध्यवसान थाय छे.] अभिप्राय यह है कि जैसे धटाकारमें परिणत हुआ ज्ञान भी उपचारसे अर्थात् विषय-विषयी के सम्बन्ध से घट कहा जाता है, वैसे ही धर्मास्तिकायादि ज्ञेय पदार्थों के विषय में यह धर्मास्तिकाय है इत्यादि परिच्छितिरुप -जाननरुप विकल्प है वह भी उपचार से धर्मास्तिकायादि कहलाता है कयोंकि उस विकल्प का विषय धर्मास्तिकायादि है। अत: जब स्वस्थ भावसे च्यूत होकर यह आत्मा “मैं धर्मास्तिकाय हूँ इत्यादि" रुप विकल्प करता है उस समय उपचार से धर्मास्तिकाय आदि ही किया हुआ होता है। [श्लोक-२८५-२८६ , पंक्ति -१०, पृष्ठ-२५८] [.] अर्थ व टीका- जैसे स्फटिकमणि जो कि निर्मल होता है वह किसी बाहरी लगाव के बिना अपने आप ही लाल आदि रूप परिणमन नहीं करता है किन्तु जपा-पुष्पादि बाह्य दूसरे-दूसरे द्रव्य के द्वारा वह लाल आदि बनता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव भी उपाधि से रहित अपने चित्चमत्काररूप स्वभाव से वह शुद्ध ही होता है जो कि जपा-पुष्प स्थानीय कर्मोदयरूप- उपाधि के बिना रागादिरूप विभावों के रूप में परिणमन नहीं करता है। हाँ, जब कर्मोदय से होने वाले रागादिरूप-दोषभावों से अपनी सहज स्वच्छता से च्यत होता है तब वह रागी बनता है। इससे यह बात मान लेनी पडती है कि जो रागादिक है वह सब कर्मोदय जनित हैं किन्तु ज्ञानी जीव के स्वयं के भाव नहीं है। [श्लोक-३००, ३०१, पंक्ति -८, पृष्ठ-२७०] [शानीने शायनो सभ्य प्रतिमास.] [.] तात्पर्य यह है कि विवक्षा में ली हुई एकदेशशुद्धनय के आश्रित होने वाली भावना निर्विकार-स्वसंवेदन ही है लक्षण जिसका ऐसे क्षयोपशमिक ज्ञान से पृथक्पने के कारण यद्यपि एकदेश–व्यक्तिरूप है फिर भी ध्यान करने वाला पुरूष यही भावना करता है कि जो सभी प्रकार के आवरणों से रहित अखंडएक प्रत्यक्ष-प्रतिभासमय तथा नाश रहित और शुद्धपारिणामिक लक्षणवाला निजपरमात्मद्रव्य है वही मैं हूं अपितु खंडज्ञानरूप मैं नहीं हूं। [३०५, पंक्ति -२३, पृष्ठ-३०४ ]
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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