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________________ ૧૪ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ को जानने में समर्थ हैं। वह ज्ञान इस तरह जानता है कि अनन्त ज्ञान सुखादिरुप मैं परमात्मा पदार्थ हूँ तथा रागादि आस्रव को आदि लेकर सर्व ही पुद्गलादि द्रव्य मुझसे भिन्न हैं । इसी अर्थ विकल्प को ज्ञान चेतना कहता है। [ गाथा- ३३, पृष्ठ-१४१ ] समयसार श्री कंदकुंदाचार्य प्रणीत [ 1 ] श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृतिः टीका टीका - जीव-स्वभाव और अजीव-स्वभाव के भेद से मिथ्यात्व दो प्रकार का है। उसी प्रकार अज्ञान, अविरति, योग, मोह और क्रोधादि ये सब ही भाव अर्थात् पर्याय मयूर और दर्पण के समान जीव-स्वरूप और अजीव-स्वरूप भी होते है। जैसे मयूर और दर्पण में मयूर के द्वारा पैदा किये हुए अनुभव में आनेवाले नील-पीतादि आकार विशेष जो कि मयूर के शरीर के आकार परिणत हो रहे हैं वे मयूर ही हैं, चेनतमय हैं, वैसें ही निर्मल-आत्मानुभूति से च्युत हुए जो जीव के द्वारा उत्पन्न किये हुए अनुभव में आने वाले सुखदुःखादि-विकल्प रूप भाव हैं, वे अशुद्ध निश्चयनय से जीवरूप ही हैं, चेतनाम हैं। और जैसे स्वच्छतारूप दर्पण के द्वारा उत्पन्न किये हुए प्रकाशमान मुख का प्रतिबिम्बादि रूप विकार वे सब दर्पणमयी हैं अतएव अचेतन हैं उसी प्रकार उपादानभूत कर्मवर्गणारूप पुदगल कर्म के द्वारा किये हुए ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप पर्याय तो पुद्गलमय ही है, अतएव अचेतन ही है । [ 1 ] [ श्लोक -९४, पंक्ति-१५, पृष्ठ-९२-९३ ] [1] इसलिए पुण्यरूप धर्मका परिग्रहवान न होकर, किन्तु पुण्य मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानकर उस पुण्य रूप से परिणमन नहीं करता हुआ तन्मय नहीं होता हुआ वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका जाननेवाला ही होता है। [ श्लोक-२२२, पंक्ति-११, पृष्ठ-२१५ ] ....यह पाप मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानकर पाप - रूप से परिणमन नहीं करता हुआ वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका ज्ञायक ही होता है। [ श्लोक-२२३, पंक्ति - ३ ] [^] .....इस कारण इस विषय में परिग्रह रहित होता हुआ उस रूप से परिणमन नहीं करता हुआ वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका मात्र ज्ञायक ही होता है। [ श्लोक-२२३, पंक्ति-१६, पृष्ठ- २१६ ] [1] ...इसलिये वह आत्म सुख में संतुष्ट होकर भोजन व तत्संबधी पदार्थों में परिग्रह रहित होता हुआ जैसे दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान केवल आहार में ग्रहण करने के योग्य वस्तु का उस वस्तु के रूप से ज्ञायक ही होता
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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