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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ श्री प्रवचनसार भाषा टीका श्री कुंदकुंदाचार्य देव प्रणीत ब्र. शीतलप्रसादजी कृत [.] भावार्थ- जिस गुण के निमित्त से पदार्थ किसी न किसीके ज्ञानका विषय हो वह प्रमेयत्व गुण है। आत्मा का निरावरण शुद्ध ज्ञान तब ही पूर्ण और शुद्ध ज्ञान कहा जा सकता है जब वह सब जानने योग्य विषय को जान सके। इसीलिये केवली सर्वज्ञ भगवान के सर्व पदार्थ, गुण, पर्याय एक साथ झलकते रहते हैं। [गाथा-२१, पृष्ठ-९५] विशेषार्थ- तथा ज्ञानमयी होने के कारण से जो गणधरादिक उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान जिन अर्थात् कर्मो को जीतनेवाले अरहंत या सिद्ध भगवान सर्व गत या सर्व व्यापक हैं। उस भगवान के ज्ञानके विषयपना को प्राप्त होने के कारण से अर्थात् ज्ञेयपने को रखने के कारण से सर्व ही जगत में जो पदार्थ हैं सो उस भगवान में प्राप्त या व्याप्त कहे गए हैं। जैसे दर्पण में पदार्थ का बिम्ब पडता है तैसे व्यवहारनय से पदार्थ भगवान के ज्ञानमें प्राप्त हैं। भाव यह है कि जो अनन्त ज्ञान है तथा अनाकुलपने के लक्षण को रखनेवाला अनन्त सुख है उनका आधारभूत जो है सो ही आत्मा है इस प्रकार के आत्मा का जो प्रमाण है वही आत्मा के ज्ञानका प्रमाण है और वह ज्ञान आत्माका अपना स्वरुप है। ऐसा अपना निज स्वभाव देह के भीतर प्राप्त आत्माको नहीं छोडता हुआ भी लोक-अलोक को जानता है। इस कारण से व्यवहारनय से भगवान को सर्वगत कहा जाता है। क्योंकि नील, पीत आदि बाहरी पदार्थ दर्पण में झलकते हैं ऐसे ही बाह्य पदार्थ ज्ञानाकार से ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होते हैं इसलिए व्यवहार से पदार्थों के द्वारा कार्यरुप हुए पदार्थों के ज्ञान आकार भी पदार्थ कहे जाते हैं। इसलिए वे पदार्थ ज्ञानमें तिष्ठते हैं ऐसा कहने में दोष नहीं है। यह अभिप्राय हैं। [गाथा-२६, पृष्ठ-१०९] भावार्थ- जैसे आत्मा को सर्वगत कह सकते है वैसे यह भी कह सकते हैं कि सर्व ज्ञेय पदार्थ मानों भगवान की आत्मा में समा गए या प्रवेश हो गए। क्योंकि केवलीके ज्ञानमें सर्व ज्ञेयों के आकार ज्ञानाकार हो गए हैं। यद्यपि ज्ञेय पदार्थ भिन्न भिन्न हैं तथापि उनके ज्ञानाकारों का ज्ञान में झलकना मानों पदार्थों का झलकना है। ज्ञान में जैसे प्राप्त हैं वैसे आत्मा में प्राप्त हैं; दोनों कहना विषय की अपेक्षा समान हैं। ___जैसे दर्पणमें मोर दीखता है इसमें मोर कुछ दर्पण में पैठा नहीं, मोर अलग है, दर्पण अलग है, तथापि मोर के आकार दर्पण की प्रभा परिणमी है, इससे व्यवहार से यह कह सकते हैं कि दर्पण, या दर्पण की प्रभा मोर में
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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