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________________ [ ] મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ व्याप्त है अथवा मोर दर्पण की प्रभा में या दर्पण में व्याप्त है। इसी तरह केवलज्ञानी भगवान अरहंत या सिध्ध तथा उनका स्वभाविक शुद्ध ज्ञान अपने ही प्रदेशों की सत्तामें रहते हैं। न वे पदार्थों के पास जाते और न पदार्थ उनके पास आते तथापि झलकन की अपेक्षा यह कह सकते हैं कि अरहंत या सिध्ध भगवान या उनका ज्ञान सर्वगत या सर्वव्यापक है अथवा सर्व लोकालोक ज्ञेय रुप से भगवान अरहंत या सिध्ध में या उनके शुद्ध ज्ञानमें व्याप्त है। यहाँ आचार्य ने उसी केवलज्ञान की विशेष महिमा बताई है कि वह सर्वगत होकर के भी पूर्ण निराकुल रहता है। आत्मा में राग-द्वेष का सदभाव न होने से ज्ञान या ज्ञानी आत्मा स्वभाव से सर्व को जानते हुए भी निर्विकार रहते हैं- एसा अनुपम केवलज्ञान जिस शुद्धोपयोग या साम्य भाव के अनुभव से प्राप्त होता है उस ही की भावना करनी चाहिए यह तात्पर्य है। [गाथा-२६ , पृष्ठ-११०] विशेषार्थ- निश्चय से केवलज्ञानी भगवान आत्मा केवलज्ञान स्वभावरुप है तथा उस ज्ञानी जीव के भीतर तीन जगत के तीन कालवर्ती पदार्थ ज्ञेयस्वरुप पदार्थ आंखो के भीतर रुपी पदार्थों की तरह परस्पर एक दूसरे के भीतर नहीं रहते हैं। जैसे आंखो के साथ रुपी मूर्तिक द्रव्योंका परस्पर सम्बन्ध नही है अर्थात् आंख शरीर में अपने स्थान पर है और रुपी पदार्थ अपने आकार का समर्पण आंखो में कर देते हैं तथा आंखे उनके आकारों को जानने में समर्थ होती हैं तैसे ही तीन लोक के भीतर रहनेवाले पदार्थ तीन काल की पर्यायो में परिणमन करते हुए ज्ञानके साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध न रखते हुए भी ज्ञानी के ज्ञानमें अपने आकार के देने में समर्थ होते हैं तथा अखंडरुपसे एक स्वभाव झलकने वाला केवलज्ञान उन आकारों को ग्रहण करने में समर्थ होता है ऐसा भाव है। [गाथा-२६, पृष्ठ-११६ ] [.] द्रव्य और गुणमें सदृश प्रदेशी तादात्म्य सम्बन्ध है। ऐसा निश्चय से ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध है। तौ भी ज्ञान अपने कार्य के करने में स्वाधीन है। ज्ञान का काम तीन काल की सर्व लोकालोकवर्ती पदार्थों की सर्व पर्यायों को एक साथ जानना है। इस ज्ञानपने के काम को करता हुआ यह आत्मा तथा उसका ज्ञान अपने नियत स्थान को छोडकर नहीं जाते है। और न ज्ञेयरुप से ज्ञान में झलकनेवाले पदार्थ अपने अपने स्थानको त्यागकर ज्ञान में या आत्मा में आ जाते है। कोई भी अपने अपने क्षेत्र को छोडता नहीं तथापि जैसे आंखे अपने मुखमें नियत स्थान पर रहती हुई भी और सामने के रुपी पदार्थों में न जाती हुई भी रुपी पदार्थों का प्रवेश आंखो में न होते हुए भी सामने के रुपी पदार्थों को देख लेती है ऐसा परस्पर ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है कि पदार्थों के आकारों में आंखो के भीतर उनके आकारों को ग्रहण करने की सामर्थ्य है
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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