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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ [] ....मिथ्यात्वपर्याय के विनाश का सम्यक्त्वपर्यायरूप से प्रतिभासन होने से उसके
विनाश बिना सम्यक्त्वपर्याय उत्पन्न नहीं होती है। उसके विनाश का सम्यक्त्वपर्यायरूप से प्रतिभासन कैसे होता है- “अभाव अन्य पदार्थ के स्वभावरुप होता है" ऐसा वचन होने से , जैसे, मिट्टी के पिण्ड का अभाव घडे की उत्पतिरूप से प्रतिभासित होता है; उसीप्रकार मिथ्यात्वपर्याय का अभाव सम्यक्त्वपर्याय की उत्पत्तिरूप से प्रतिभासित होता है।
[श्लोक-११०, पंक्ति -१६ , पृष्ठ-१५६ ] भावार्थ- यहाँ सम्पूर्ण द्रव्यों को जीव और अजीव दो भागों में विभक्त किया गया है। उनमें से जीव द्रव्य निश्चय से अपने से ही अपने अस्तित्व वाला, बाह्य कारणों की अपेक्षा के बिना बाहर और अन्दर प्रकाशमान, शाश्वत परमशुद्ध चेतना के साथ और व्यवहार से अशुद्ध चेतना के साथ सम्बद्ध होने से चेतना स्वरूप है, तथा निश्चय नय से अखण्ड एक प्रतिभासमय [ ज्ञानस्वरूप] परिपूर्ण शुद्ध , केवलज्ञान-केवलदर्शन लक्षण वाला, पदार्थों को जानने की क्रिया रूप शुद्धोपयोग से और व्यवहार से मतिज्ञान आदि अशुद्धोपयोग से रचित होने के कारण उपयोगमय है।
[श्लोक-१३७, पंक्ति -४-११, पृष्ठ-२०४ ] [.] वह इसप्रकारं– प्रथम तो में केवलज्ञान-केवलदर्शन स्वभावरूप होने से , ज्ञायक
एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ। ऐसा होते हुये मेरा पर-द्रव्यों के साथ स्व-स्वामी आदि सम्बन्ध नहीं है, इतना मात्र ही नहीं है अपितु निश्चय से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है। इस कारण मैं सम्पूर्ण परद्रव्यों के प्रति ममत्व रहित होकर, परम साम्य लक्षण अपने शुद्धात्मा में स्थित रहता हूँ।
[श्लोक-२१३, पंक्ति -८, पृष्ठ-३००]
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दुगनी ५२मार्थ व्याच्या (નરકાદિ ) સંયોગનું દુઃખ નથી. જે જાણનાર જાત છે તેને જાણતો નથી અને જેમાં (પોતે) નથી એના ઉપર લક્ષ કર્યા કરે છે એ દુઃખ છે. અહીં દુઃખની વ્યાખ્યા ४६. छ. २॥ भयाने आपे सेवा संयो। (तेनु) : नथी. दु: तो मे छ - - પોતાના સ્વભાવની દૃષ્ટિ છોડીને પરની દૃષ્ટિમાં રોકાઈ જવું તે દુઃખ છે–
આવી વ્યાખ્યા છે. ૨, (નિયમસાર શ્લોક ૨૭૮, તા. ૨૬/૭/૮૦ ના પ્રવચન નં-૧૯૩ માંથી)