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નાટક સમયસારના પદ
लांकसौ खड़ग बांधि बांक धरै मनमैं ।।२९।।
जैसैं कोउ कूकर छुधित सूके हाड़ चाबै,
हाड़निकी कोर चहुं ओर चुभै मुखमैं । गाल तालु रमना मसूढनिकौ मांस फाटै,
चाटै निज रुधिर मगन स्वाद-सुखमैं तैसैं मूढ विषयी पुरुष रति-रीति ठानै,
तामें चित सानै हित मानै खेद दुखमैं। देखै परतच्छ बल-हानि मल-मूत-खानि,
गहै न गिलानि पगि रहै राग-रुखमैं । ।३०।।
से निर्भीडा छ त. साधु छ. (मसि) सदा करमसौं भिन्न, सहज चेतन कह्यौ।
मोह-विकलता मानि, मिथ्याति है रह्यौ।। करै विकल्प अनंत, अहंमति धारिकै।
सो मुनि जो थिर होइ, ममत्त निवारिकै।।३१।।
સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ આત્મસ્વરૂપમાં સ્થિર થાય છે. (સવૈયા એકત્રીસા) असंख्यात लोक परवांन जे मिथ्यात भाव,
तेई विवहार भाव केवली-उक्त हैं। जिन्हको मिथ्यात गयौ सम्यक दरस भयौ,
ते नियत-लीन विवहारसौं मुकत हैं।। निरविकलप निरुपाधि आतम समाधि,
___साधि जे सुगुन मोख पंथकौं ढुकत हैं। तेई जीव परम दसामैं थिररूप हैकै,
धरममैं धुके न करमसौं रुकत हैं।।३२ ।।