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________________ નાટક સમયસારના પદ પ૭૯ અજ્ઞાની જીવની મૂઢતા ઉપર મૃગજળ અને આંધળાનું દૃષ્ટાન્ત. (સવૈયા એકત્રીસા) जैसैं मृग मत्त वृषादित्यकी तपत माहि, तृषावंत मृषा-जल कारन अटतु है। तैसैं भववासी मायाहीसौं हित मानि मानि, ठानि ठानि भ्रम श्रम नाटक नटतु है। आगेकौं धुकत धाइ पीछे बछरा चवाइ, जैसैं नैनहीन नर जेवरी बटतु है। तैसैं मूढ़ चेतन सुकृत करतूति करै, __ रोवत हसत फल खोवत खटतु है।।२७ ।। અજ્ઞાની જીવ બંધનથી છૂટી શકતો નથી. તેના ઉપર દષ્ટાન્ત. (સવૈયા એકત્રીસા) लियें द्रिढ़ पेच फिरै लोटन कतबरसौ, उलटौ अनादिको न कहूं सुलटतु है। जाको फल दुख ताहि सातासौं कहत सुख, सहत-लपेटी असि-धारासी चटतु है।। ऐसैं मूढजन निज संपदा न लखै क्यौंही, यौहि मेरी मेरी निसिवासर रटतु है। याही ममतासौं परमारथ विनसि जाइ, कांजीकौ परस पाइ दूध ज्यौं फटतु है।।२८ ।। અજ્ઞાની જીવની અહંબુદ્ધિ પર દૃષ્ટાંત (સવૈયા એકત્રીસા) रूपकी न झाँक ही3 करमकौं डांक पियें, ___ ग्यान दबि रह्यौ मिरगांक जैसैं घनमैं। लोचनकी ढांकसौं न मानै सदगुरु हांक, डोलै मूढ़ रांकसौ निसांक तिहूं पनमैं ।। टांक एक मांसकी डलीसी तामैं तीन फांक, तीनकौसौ आंक लिखि राख्यौ काहू तनमैं। तासौं कहै नांक ताके राखिवैकौं करै कांक,
SR No.008260
Book TitleKalashamrut Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages609
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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