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પ૭૪
નાટક સમયસારના પદ
જેવી ક્રિયા તેવું ફળ (દોહરો) बंध बढ़ावै अंध है, ते आलसी अजान। मुकति हेतु करनी करें, ते नर उद्दिमवान ।।११।।
જ્યાં સુધી જ્ઞાન છે ત્યાં સુધી વૈરાગ્ય છે. (સવૈયા એકત્રીસા) जबलग जीव सुद्धवस्तुकौं विचारै ध्यावै,
तबलग भौगसौं उदासी सरवंग है। भोगमैं मगन तब ग्यानकी जगन नाहि,
भोग-अभिलाषकी दसा मिथ्यात अंग है। तातै विषै-भोगमैं मगन सो मिथ्याती जीव,
भोगसौं उदास सो समकिती अभंग है। ऐसी जानि भोगसौं उदास है मुकति साथै,
यहै मन चंग तो कठौती मांहि गंग है।।१२।।
या२ पुरुषार्थ (Els) घरम अस्थ अरु काम सिव, पुरुषारथ चतुरंग। कुधी कलपना गहि रहै, सुधी गहै सरवंग।।१३।।
ચાર પુરુષાર્થ ઉપર જ્ઞાની અને અજ્ઞાનીનો વિચાર (સવૈયા એકત્રીસા) कुलको आचार ताहि मूरख धरम कहै,
पंडित धरम कहै वस्तुके सुभाउकौं। खेहको खजानौं ताहि अग्यानी अरथ कहै, __ग्यानी कहै अरथ दरव-दरसाउकौं।। दंपतिको भोग ताहि दुरबुद्धी काम कहै,
सुधी काम कहै अभिलाष चित चाउकौं। इंद्रलोक थानकौं अजान लोग कहैं मोख,
सुधी मोख कहै एक बंधके अभाउकौं।।१४ ।।