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નાટક સમયસારના પદ
પ૭૩
ઉદયની પ્રબળતા ઉપર દષ્ટાન્ત (સવૈયા એકત્રીસા) जैसैं गजराज परयौ कर्दमकै कुंडबीच,
उद्दिम अहूटै पै न छूट दुख-दंदसौं। जैसैं लोह-कंटककी कोरसौं उरझ्यौ मीन,
ऐचत असाता लहै साता लहै संदसौं ।। जैसैं महाताप सिर वाहिसौं गरास्यौ नर,
तकै निज काज उठि सकै न सुछंदसौं। तैसैं ग्यानवन्त सब जानै न बसाइ कछु,
बंध्यौ फिरै पूरब करम-फल-फंदसौं ।।८।।
મોક્ષમાર્ગમાં અજ્ઞાની જીવ પુરુષાર્થ હીન અને જ્ઞાની પુરુષાર્થી હોય છે. (ચોપાઈ)
जे जिय मोह नींदमैं सोवें।
ते आलसी निरुद्दिम होवें।। द्रिष्टि खोलि जे जगे प्रवीना।
तिनि आलस तजि उद्दिम कीना।।९।।
જ્ઞાની અને અજ્ઞાનીની પરિણતિ પર દૃષ્ટાંત (સવૈયા એકત્રીસા) काच बांधै सिरसौं सुमनि बांधै पाइनिसौं,
जानै न गंवार कैसी मनि कैसौ काच है। यौंही मूढ़ झूठमैं मगन झूठहीकौं दोरै,
झूठी बात मानै पै न जाने कहा साच है।। मनिकौं परखि जानै जौहरी जगत मांहि,
साचकी समुझि ग्यान लोचनकी जाच है। जहांको जु वासी सो तौ तहांकी मरम जाने,
जाको जैसौ स्वांग ताकौ रूप नाच है।।१०।।