________________
३०]
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
अब आगे कहते हैं कि असंयमी वंदने योग्य नहीं हैः
अस्संजदं ण वन्दे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज्ज । दोणि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ।। २६ ।।
असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्यते ।
द्वौ अपि भवतः समानौ एकः अपि न संयतः भवति ।। २६ ।।
अर्थः-- असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये । भावसंयम नहीं हो और बाह्यमें वस्त्र रहित हो वह भी वंदने योग्य नहीं है क्योंकि यह दोनों ही संयम रहित समान हैं, इनमें एक भी संयमी नहीं है।
[ अष्टपाहुड
भावार्थः--जिसने गृहस्थका भेष धारण किया है वह तो असंयमी है ही, परन्तु जिसने बाह्यमें नग्नरूप धारण किया है और अंतरंग में भावसंयम नहीं है तो वह भी असंयमी ही है, इसलिये यह दोनों ही असंयमी ही हैं। अतः दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं। यहाँ आशय ऐसा है, अर्थात्, ऐसा नहीं जानना चाहिये कि – जो आचार्य यथाजातरूपको दर्शन कहते आये हैं वह केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, क्योंकि आचार्य तो बाह्य - अभ्यंतर सब परिग्रहसे रहित हो उसको यथाजातरूप कहते हैं। अभ्यंतर भावसंयम बिना बाह्य नग्न होनेसे तो कुछ संयम होता नहीं है ऐसा जानना। यहाँ कोई पूछे - बाह्य भेष शुद्ध हो, आचार निर्दोष पालन करनेवाले को अभ्यंतर भावमें कपट हो उसका निश्चय कैसे हो, तथा सूक्ष्मभाव केवलीगम्य हैं, मिथ्यात्व हो उसका निश्चय कैसे हो, निश्चय बिना वंदनेकी क्या रीति ? उसका समाधान-ऐसे कपटका जब तक निश्चय नहीं हो तब तक आचार शुद्ध देखकर वंदना करे उसमें दोष नहीं है, और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाये तब वंदना नहीं करें, केवलीगम्य मिथ्यात्वकी व्यवहारमें चर्चा नहीं है, छद्मस्थके ज्ञानगम्यकी चर्चा है। जो अपने ज्ञानका विषय ही नहीं उसका बाध-निर्बाध करने का व्यवहार नहीं है । सर्वज्ञभगवानकी भी यही आज्ञा है । व्यवहारी जीवको व्यवहारका ही शरण है ।। २६ ।।
[ नोट एक गुणका दूसरे आनुषंगिक गुण द्वारा निश्चय करना व्यवहार है, उसी का नाम व्यवहारी जीवको व्यवहार का शरण है।
आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं:
वंदो न अणसंयत, भले हो नग्न पण नहि वंद्य ते; बन्ने समानपणुं धरे, अकके न संयमवंत छे । २६ ।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com