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दर्शनपाहुड ]
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सहजुप्पण्णं रुवं दट्ठं जो मण्णए ण मच्छरिओ । सो संजमपडिवण्णो मिच्छादट्ठी हवइ एसो ।। २४ ।।
सहजोत्पन्नं रुपं दृष्ट्वा यः मन्यते न मत्सरी । सःसंयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिः भवति एषः ।। २४ ।।
अर्थः--जो सहजोत्पन्न यथाजातरूप को देखकर नहीं मानते हैं, उसका विनय सत्कार प्रीति नहीं करते हैं और मत्सर भाव करते हैं वे संयमप्रतिपन्न हैं, दीक्षा ग्रहण की है फिर भी प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि हैं ।
भावार्थ:-- जो यथाजातरूप को देख कर मत्सर भावसे उसका विनय नहीं करते हैं तो ज्ञात होता है कि – इनके इस रूप की श्रद्धा - रुचि नहीं है । ऐसी श्रद्धा - रुचि बिना तो मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । यहाँ आशय ऐसा है कि- जो श्वेताम्बरादिक हुए वे दिगम्बर रूपके प्रति मत्सरभाव रखते हैं और उसका विनय नहीं करते हैं उनका निषेध है ।।२४।।
आगे इसी को दृढ़ करते हैं:
अमराण वंदियाणं रुवं दट्ठूण सीलसहियांण। जे गारव करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति ।। २५ ।।
अमरैः वंदितानां रुपं दृष्टवा शीलसहितानाम् । ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्त्वविवर्जिताः भवंति।। २५ ।।
[ २९
अर्थः--देवोंसे वंदने योग्य शील सहित जिनेश्वर देवके यथाजातरूप को देखकर जो गौरव करते हैं, विनयादिक नहीं करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित हैं ।
भावार्थ:-- जिस यथाजातरूपको देखकर अणिमादिक ऋद्धियोंके धारक देव भी चरणोंमें गिरते हैं उसको देखकर मत्सरभावसे नमस्कार नहीं करते हैं उनके सम्यक्त्व कैसे ? वे सम्यक्त्व से रहित ही हैं ।। २५ ।।
ज्यां रूप देखी साहजिक, आदर नहीं मत्सर वडे, संयम तणो धारक भले ते होय पण कुदृष्टि छे । २४ ।
जे अमरवंदित शीलयुत मुनिओतणु रूप जोईने, मिथ्याभिमान करे अरे! ते जीव दृष्टिविहीन छे । २५ ।
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