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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८/ । अष्टपाहुड निजरूपको उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जब तक [चारित्रमें प्रबल दोष है तब तक] चारित्र मोह कर्मका उदय प्रबल होता है [और] तबतक अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती। जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेषका श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करनेवाले को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।। अब आगे कहते हैं कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित हैं वे वंदन करने योग्य हैं: दंसणणाणचरित्ते तवविणये 'णिच्चकालसुपसत्था। ए दे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं।। २३।। दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकाल सुप्रस्वस्थाः। ऐ ते तु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम्।। २३।। अर्थ:--दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित है वे प्रशस्त हैं, सरागने योगय हैं अथवा भले प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं और गणधर आचार्य भी उनके गुणानुवाद करते हैं अतः वे वंदने योग्य हैं। दूसरे जो दर्शनादिक से भ्रष्ट हैं और गुणवानोंसे मत्सरभाव रखकर विनयरूप नहीं प्रवर्तते वे वंदने योग्य हैं ।।२३।। अब कहते हैं कि-जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभावसे वन्दना नहीं करते हैं वे मिथ्यादृष्टि ही हैं: १ पाठान्तर-णिच्कालसुपत्ता दृग, ज्ञान ने चारित्र, तप, विनये सदाय सुनिष्ठ जे, ते जीव वंदन योग्य छे - गुणधर तणा गुणवादी जे। २३ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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