SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दर्शनपाहुड] ३१ ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण विय जाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ।।२७।। नापि देहो वंद्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः। 'क: वंद्यते गुणहीनः न खलु श्रमणः नैव श्रावकः भवति।। २७।। अर्थ:--देह को भी नहीं वंदते हैं और कुलको भी नहीं वंदते है तथा जातियुक्तको भी नहीं वंदते हैं क्योंकि गुण रहित हो उसको कौन वंदे ? गुण बिना प्रकट मुनि नहीं, श्रावक भी नहीं है। भावार्थ:--लोकमें भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता है, देह रूपवान हो तो क्या, कुल बड़ा होतो क्या, जाति बड़ी होतो क्या। क्योंकि, मोक्षमार्ग में तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण हैं। इनके बिना जाति, कुल, रूप आदि वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनि श्रावकपना नहीं आता है। मुनि-श्रावकपना तो समयदर्शन-ज्ञान-चारित्र से होता है, इसलिये जिनको धारण है वही वंदने योग्य हैं। जाति, कुल आदि वंदने योग्य नहीं हैं ।।२७।। अब कहते हैं कि जो तप आदिसे संयुक्त हैं उनको नमस्कार करता हूँ : वंदमि तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च। सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण।। २८ ।। वन्दे तपः श्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्यं च। सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन।।२८।। १. 'कं वन्देगुणहीनं' षपाहुड में पाठ है । २. 'तव समण्णा' छाया -[तपः समापन्नात् ] 'तवसउण्णा' 'तवसमाणं' ये तीन पाठ मुद्रित षट्प्राभृतकी पुस्तक तथा उसकी टिप्पणी में है। ३. 'सम्मत्तेणेव' ऐसा पाठ होने से पाद भंग नहीं होता। नहि देह वंद्य न वंद्य कुल, नहि वंद्य जन जाति थकी; गुणहीन क्यम वंदाय? ते साधु नथी, श्रावक नथी। २७। सम्यक्त्वसंयुक्त शुद्ध भावे वंदु छु मुनिराजने, तस ब्रह्मचर्य, सुशीलने, गुणने तथा शिवगमनने। २८ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy