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जह मूलम्मि विणढे दुमस्स परिवार णत्थि परिवड्ढी। तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिझंति।।१०।।
यथा मूले विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवद्धिः। तथा जिनदर्शनभ्रष्टा: मूलविनष्टाः न सिद्धयन्ति।।१०।।
अर्थ:--जिस प्रकार वृक्षका मूल विनष्ट होनेपर उसके परिवाय अर्थात् स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फलकी वृद्धि नहीं होती, उसीप्रकार जो जिनदर्शनसे भ्रष्ट हैं-बाह्यमें तो नग्नदिगम्बर यथाजातरूप निग्रन्थ लिंग, मूलगुणका धारण, मयूर पिच्छिका की पीछी तथा कमण्डल धारण करना, यथाविधि दोष टालकर खड़े खड़े शुद्ध आहार लेना -इत्यादि बाह्य शुद्ध वेष धारण करते हैं, तथा अंतरंग में जीवादि छह द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्वोंका यर्थाथ श्रद्धान एवं भेदविज्ञानसे आत्मस्वरूपका अनुभवन -ऐसे दर्शन मत से बाह्य हैं वे मूल विनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती, वे मोक्षफलको प्राप्त नहीं करते।
अब कहते हैं कि -जिनदर्शन ही मूल मोक्षमार्ग है:---
जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहु गुणो होइ। तह जिणदंसण मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स।।११।।
यथा मूलात् स्कंधः शाखापरिवारः बहुगुणः भवति। तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य।।११।।
अर्थ:-जिसप्रकार वृक्षके मूल से स्कंध होते हैं; कैसे स्कंध होते हैं कि -जिनके शाखा आदि परिवार बहुत गुण हैं। यहाँ गुण शब्द बहुतका वाचक है; उसीप्रकार गणधर देवाधिकने जिनदर्शनको मोक्षमार्ग का मूल कहा है।
भावार्थ:-जहाँ जिनदर्शन अर्थात् तीर्थंकर परमदेवने जो दर्शन ग्रहण किया उसीका उपदेश दिया है; वह अट्ठाईस मूलगुण सहित कहा है। पांच महाव्रत,
जयम मूलनाशे वृक्षना परिवारनी वृद्धि नहीं, जिनदर्शनात्मक मूल होय विनिष्ट तो सिद्धि नहीं। १० ।
ज्यम मूल द्वारा स्कंध ने शाखादि बहु गुण थाय छे, त्यम मोक्षपथनुं मूल जिनदर्शन कहुं जिनशासने। ११ ।
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