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[अष्टपाहुड
भावार्थ:--यहाँ सामान्य वचन है इसलिये ऐसा भी आशय सूचित करता है कि सत्यार्थ श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र तो दूर ही रहा, जो अपने मत की श्रद्धा, ज्ञान, आचरण से भी भ्रष्ट हैं वे तो निरर्गल स्वेच्छाचारी हैं। वे स्वयं भ्रष्ट हैं उसी प्रकार अन्य लोगोंको उपदेशादिक द्वारा भ्रष्ट करते हों, तथा उनकी प्रवृत्ति देख कर लोग स्वयमेव भ्रष्ट होते हैं, इसलिये ऐसे तीव्रकषायी निषिद्ध हैं; उनकी संगति करना भी उचित नहीं है।।८।।
अब, कहते हैं कि---ऐसे भ्रष्ट पुरुष स्वयं भ्रष्ट हैं, वे धर्मात्मा पुरुषोंको दोष लगाकर भ्रष्ट बतलाते हैं:----
जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोगगुणधारी। तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गात्तणं दितिं।।९।।
यः कोऽपि धर्मशीलः संयम तपोनियमयोगगुणधारी।।
तस्य च दोषान् कथयंत: भग्ना भग्नत्वं ददति।।९।। अर्थ:--जो पुरुष धर्मशील अर्थात् अपने स्वरूपरूप धर्मको साधनेका जिसका स्वभाव है, तथा संयम अर्थात् इन्द्रिय-मनका निग्रह और षट्कायके जीवोंकी रक्षा, तप अर्थात् बाह्याभ्यंतर भेदकी अपेक्षा से बारह प्रकारके तप, नियम अर्थात् आवश्यकादि नित्यकर्म, योग अर्थात् समाधि, ध्यान तथा वर्षाकाल आदि कालयोग, गुण अर्थात् मूल गुण, उत्तरगुण –इनका धारण करनेवाला है उसे कई मतभ्रष्ट जीव दोषोंका आरोपण करके कहते हैं कि -यह भ्रष्ट है, दोष युक्त है, वे पापात्मा जीव स्वयं भ्रष्ट हैं इसलिये अपने अभिमान की पुष्टिके लिये अन्य धर्मात्मा पुरुषोंको भ्रष्टपना देते हैं।
भवार्थ:--पापियोंका ऐसा ही स्वभाव होता है कि स्वयं पापी हैं उसी प्रकार धर्मात्मा में दोष बतलाकर अपने समान बनाना चाहते हैं। ऐसे पापियों की संगति नहीं करनी चाहिये ।।९।।
अब, कहते हैं कि -जो दर्शन भ्रष्ट हैं वह मूलभ्रष्ट हैं, उसको फल की प्राप्ति नहीं होती:----
जे धर्मशील, संयम-नियम-तप-योग-गुण धरनार छे,
तेनाय भाखी दोष, भ्रष्ट मनुष्य दे भ्रष्टत्वने। ९ ।
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