SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दर्शनपाहुड] [१७ अर्थ:--जिस पुरुषके हृदयमें सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह निरन्तर प्रवर्तमान है उसके कर्मरूपी रज-धूलका आवरण नहीं लगता, तथा पूर्वकालमें जो कर्मबंध हुआ हो वह भी नाशको प्राप्त होता है। भावार्थ:--सम्यक्त्वसहित पुरुषको (निरंतर ज्ञानचेतनाके स्वामित्वरूप परिणमन है इसलिये) कर्मके उदयसे हुए रागादिक भावोंका स्वामित्व नहीं होता, इसलिये कषायों की तीव्र कलुषता से रहित परिणाम उज्ज्वल होते हैं; उसे जल की उपमा है। जैसे -जहाँ निरंतर जलका प्रवाह बहता है वहाँ बालू-रेत-रज नहीं लगती; वैसे ही सम्यक्त्वी जीव कर्मके उदय को भोगता हुआ भी कर्मसे लिप्त नहीं होता। तथा बाह्य व्यवहार की अपेक्षासे ऐसा भी तात्पर्य जानना चाहिये कि -जिसके हृदय में निरंतर सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह बहता है वह सम्यक्त्वी पुरुष इस कलिकाल सम्बन्धी वासना अर्थात कदेव-कगरु-कशास्त्रको नमस्कारादिरूप अतिचाररूपरज भी नहीं लगता, तथा उसके मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंका आगामी बंध भी नहीं होता।। ७।। अब, कहते हैं कि -जो दर्शनभ्रष्ट हैं तथा ज्ञान–चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु दूसरोंको भी भ्रष्ट करते हैं, --यह अनर्थ है:---- जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य। एदे भट्ठ वि भट्ठा सेसं पि जणं विणासंति।।८।। ये दर्शनेषु भ्रष्टा: ज्ञाने भ्रष्टाः चारित्र भ्रष्टा: च। एते भ्रष्टात् अपि भ्रष्टाः शेषं अपि जनं विनाशयंति।।८।। अर्थ:--जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट है तथा ज्ञान-चारित्र मेह भी भ्रष्ट है वे पुरुष भ्रष्टोंमें भी विशेष भ्रष्ट हैं कई तो दर्शन सहित हैं किन्तु ज्ञान–चारित्र उनके नहीं है, तथा कई अंतरंग दर्शन से भ्रष्ट हैं तथापि ज्ञान-चारित्रका भली भाँति पालन करते हैं; और जो दर्शन-ज्ञानचारित्र इन तीनोंसे भ्रष्ट हैं वे तो अत्यन्त भ्रष्ट हैं; वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु शेष अर्थात् अपने अतिरिक्त अन्य जनोंको भी नष्ट करते हैं। सम्यक्त्वनीर प्रवाह जेना हृदयमां नित्ये वहे, तस बद्धकर्मो वालुका-आवरण सम क्षयने लहे। ७। दृग्भ्रष्ट, ज्ञाने भ्रष्टने चारित्रमा छे भ्रष्ट जे, ते भ्रष्टथी पण भ्रष्ट छे ने नाश अन्य तणो करे। ८। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy