SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०] [अष्टपाहुड पाँच समिति, छह आवश्यक, पाँच इन्द्रियोंको वश में करना, स्नान नहीं करना , भूमिशयन, वस्त्रादिकका त्याग अर्थात् दिगम्बर मुद्रा, केशलोंच करना, एकबार भोजन करना, खड़े खड़े आहार लेना, दंतधोवन न करना-यह अट्ठाईस मूलगुण हैं। तथा छियालीस दोष टालकर आहार करना वह एषणा समितिमें आ गया। ईयापथ-देखकर चलना यह ईया समिति में आ गया। तथा दयाका उपकरण मोरपुच्छ की पीछी और शौच का उपकरण कमंडल धारण करना-ऐसा बाह्य वेष है। तथा अंतरंग में जीवादिक षद्रव्य, पंवास्तिकाय, सात तत्त्व, नव पदार्थोंको यथोक्त जानकर श्रद्धान करना और भेदविज्ञान द्वारा अपने आत्मस्वरूपका चितवन करना, अनुभव करना ऐसा दर्शन अर्थात् मत वह मूल संघका है ऐसा जिनदर्शन है वह मोक्षमार्गका मूल है; इस मुलसे मोक्ष मार्ग की सर्व प्रवृत्ति सफल होती है। तथा जो इससे भ्रष्ट हुए हैं वे इस पंचमकाल के दोष से जैसाभास हुए हैं वे श्वेताम्बर, द्राविड, यापनीय, गोपुच्छपिच्छ, निपिच्छ-पांच संघ हुए हैं। उन्होंने सूत्र सिद्धान्त अपभ्रंश किये हैं। जिन्होंने बाह्य वेष को बदलकर आचारणको बिगाड़ा है वे जिनमतके मूलसंघसे भ्रष्ट हैं, उनको मोक्षमार्गकी प्रीप्ति नहीं है। मोक्षमार्ग की प्राप्ति मूलसंघके श्राद्धान-ज्ञान-आचरण ही से है ऐसा नियम जानना।।११।। आगे कहते हैं कि जो यथार्थ दर्शनसे भ्रष्ट हैं और दर्शनके धारकोंसे अपनी विनय कराना चाहते हैं वे दुर्गिति प्राप्त करते हैं:-- जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।।१२।। वे दर्शनेषु भ्रष्टाः पादयोः पातयंति दर्शनधरान। ते भयंति लल्लमूकाः बोधिः पुनः दुर्लभा तेषाम्।।१२।। अर्थ:--जो पुरुष दर्शनमें भ्रष्ट हैं तथा अन्य जो दर्शन के धारक हैं उन्हें अपने मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें इस गाथाका पूर्वार्द्ध इसप्रकार है जिसका यह अर्थ है कि- 'जो दर्शनभ्रष्ट पुरुष दर्शधारियोंके चरणोंमें नहीं गिरते हैं' - 'जे दंसणेसु भट्ठा पाए न पंडंति दंसणधराणं' - उत्तरार्थ समान है। दुग्भ्रष्ट जे निज पाय पाडे दृष्टिना धरनारने, ते थाय मूंगा, खंडभाषी, बोध दुर्लभ तेमने। १२ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy