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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३६८] [ अष्टपाहुड णाणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ।।६।। ज्ञानं चारित्रसुद्धं लिंगग्रहणं च दर्शन विशुद्धम्। संयमसहितं च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति।।६।। अर्थ:--ज्ञान तो चारित्रसे शुद्ध और लिंगका ग्रहण दर्शन से शुद्ध तथा संयमसहित तप, ऐसे थोड़ा भी आचरण करे तो महाफलरूप होता है। भावार्थ:--ज्ञान थोड़ा भी हो और आचरण शुद्ध करे तो बड़ा फल हो और यथार्थ श्रद्धानपूर्वक भेष ले तो बड़ा फल करे; जैसे सम्यग्दर्शन सहित श्रावक ही हो तो श्रेष्ठ और उसके बिना मुनिका भेष भी श्रेष्ठ नहीं है, इन्द्रिय संयम प्राणसंयम सहित उपवासादिक तप थोड़ा भी करे तो बड़ा होता है और विषयाभिलास तथा दयारहित बड़े कष्ट सहित तप करे तो भी फल नहीं होता है, ऐसे जानना।।६।। आगे कहते हैं कि यदि कोई ज्ञानको जानकर भी विषयासक्त रहते हैं वे संसार ही में भ्रमण करते हैं:--- णाणं णाऊण णरा केई विसयाइ भाव संसत्ता। हिंडंति चादुरगदिं विसएस विमोहिया मूढा।।७।। ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभाव संसक्ताः। हिंडते चर्तुगतिं विषयेषु विमोहिता मूढाः ।।७।। अर्थ:--कई मूढ़ मोही पुरुष ज्ञानको जानकर भी विषयरूप भावों में आसक्त होते हुए चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं,क्योंकि विषयों से विमोहित होने पर ये फिर भी जगत में प्राप्त होंगे इसमें भी विषय-कषयों का ही संस्कार है। भावार्थ:--ज्ञान प्राप्त करके विषय-कषाय छोड़ना अच्छा है, नहीं तो ज्ञान भी अज्ञान तुल्य ही है।। ७।। ----------- जे ज्ञान चरणविशुद्ध , धारण लिंगनुं दृगशुद्ध जे , तप जे ससंयम, ते भले थोडं, महाफलयुक्त छ। ६। नर कोई जाणी ज्ञानने, आसक्त रही विषयादिके, भटके चतुर्गतिमां अरे! विषये विमोहित मूढ ओ। ७। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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