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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शीलपाहुड] से पहिले बाँधे हुए कर्मोंका क्षय नहीं करता है। [३६७ भावार्थ:--जीवका उपयोग क्रमवर्ती है और स्वस्थ (-स्वच्छत्व) स्वभाव है अतः जैसे ज्ञेयको जानता है उस समय उससे तन्मय होकर वर्त्तता है, अतः जब तक विषयों में आसक्त होकर वर्त्तता है तब तक ज्ञान का अनुभव नहीं होता है, इष्ट-अनिष्ट भाव ही रहते हैं और ज्ञानका अनुभव हुए बिना कदाचित् विषयोंको त्यागे तो वर्तमान विषयोंको छोड़े परन्तु पूर्वकर्म बाँधे थे उनका तो - ज्ञानका अनुभव हुए बिना क्षय नहीं होता है, पूर्व कर्म बंध को क्षय करने में (स्वसन्मुख) ज्ञान ही की सामर्थ्य है इसलिये ज्ञान सहित होकर विषय त्यागना श्रेष्ठ है, विषयों को त्यागकर ज्ञानकी भावना करना यही सुशील है। आगे ज्ञान का , लिंगग्रहण का तथा तपका अनुक्रम कहते हैं:--- णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसण विहणं। संजम हीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्वं ।।५।। ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं। संयमहीनं च तप: यदि चरति निरर्थक सर्वम।।५।। अर्थ:--ज्ञान यदि चारित्र रहित हो तो वह निरर्थक है और लिंग का ग्रहण यदि दर्शनरहित हो तो वह भी निरर्थक है त- संयमरहित तप भी निरर्थक है, इस प्रकार ये आचरण करे तो सब निरर्थक हैं। भावार्थ:---हेय-उपादेय का ज्ञान तो हो और त्याग-ग्रहण न करे तो ज्ञान निष्फल है, यथार्थ श्रद्धान के बिना भेष ले तो वह भी निष्फल है, (स्वात्मानुभूति के बल द्वारा) इन्द्रियों को वश में करना, जीवों की दया करना यह संयम है इसके बिना कुछ तो करे तो अहिंसादिक का विपर्यय हो तब तप भी निष्फल हो, इस प्रकार से इनका आचरण निष्फल होता है।। ५।। आगे इसी लिये कहते हैं कि ऐसा करके थोड़ा भी करे तो बड़ा फल होता है:--- जे ज्ञान चरण विहीन, धारण लिंग- दगहीन जे, तपचरण जे संयम सुविरहित, ते बधुंय निरर्थ छ। ५। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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