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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [३२५ भेद जानकर ज्ञानी होता है, तब इसप्रकार जानता है कि--मैं शुद्ध ज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप हूँ अन्य मेरा कुछ भी नहीं है। जब भावलिंगी निग्रंथ मुनिपद की प्राप्ति करता है तब यह आत्मा हीमें अपने द्वारा अपने ही लिये विशेष लीन होता है तब निश्चयसम्यकचारित्र स्वरूप होकर अपना ही ध्यान करता है, तब ही [ साक्षात् मोक्षमार्ग में आरूढ़ ] सम्यग्ज्ञानी होता है, इसका फल निर्वाण है, इसप्रकार जानना चाहिये।। ८३।। [ नोंध---प्रवचनसार गा० २४१ - २४२ में जो सातवें गुणस्थान में आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्व ओर निश्चय आत्मज्ञान में युगपत् आरूढ़ को आत्मज्ञान कहा है वह कथनकी अपेक्षा यहाँ है। ] ( गौण – मुख्य समझ लेना)] आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं:---- पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो। जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिबंदो।। ८४ ।। पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः। यः ध्यायति सः योगी पापहरः भवति निर्द्वद्वः।। ८४।। अर्थ:--यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है ? पुरुषकार है, योगी है-जिसके मन, वचन, कायके योगोंका निरोध है, सर्वांग सुनिश्चल है और वर अर्थात् श्रेष्ठ सम्यक्रूप ज्ञान तथा दर्शनसे समग्र है--परिपूर्ण है, जिसके केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त है, इस प्रकार आत्माका जो योगी ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह मुनि पापको हरनेवाला है और निर्द्वन्द्व है---रागद्वेष आदि विकल्पोंसे रहित है। भावार्थ:--जो अरहंतरूप शुद्ध आत्माका ध्यान करता है उसके पूर्व कर्मका नाश होता है और वर्तमान में रागद्वेष रहित होता है तब आगामी कर्मको नहीं बाँधता है।। ८४ ।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार मुनियोंको प्रवर्तन के लिये कहा। अब श्रावकोंको प्रवर्तनके लिये कहते हैं:--- छे योगी पुरुषाकार, जीव वरज्ञानदर्शनपूर्ण छे; ध्यानार योगी पापनाशक द्वंद्वविरहित होय छ। ८४ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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