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[अष्टपाहुड अर्थ:--जो मुनि देव – गुरुके भक्त हैं निर्वेद अर्थात् संसार-देह-भोगों से विरागता की परंपरा का चिन्तन करते हैं, ध्यान में रत हैं रक्त हैं, तत्पर हैं और जिनके भला--उत्तम चारित्र है उनको मोक्षमार्ग में ग्रहण किये हैं।
भावार्थ:--जिनने मोक्षमार्ग प्राप्त किया ऐसे अरहंत सर्वज्ञ वीतराग देव और उनका अनुसरण करनेवाले बड़े मुनि दीक्षा देनेवाले गुरु इनकी भक्तियुक्त हो, संसार-देह-भोगोंसे विरक्त होकर मुनि हुए, वैसी ही जिनके वैराग्यभावना है, आत्मानुभवरूप शुद्ध उपयोगरूप एकाग्रतारूपी ध्यानमें तत्पर हैं और जिनके व्रत, समिति, गुप्तिरूप निश्चय-व्यवहारात्मक सम्यक्चारित्र होता है वे ही मुनि मोक्षमार्गी हैं, अन्य भेषी मोक्षमार्गी नहीं हैं।। ८२ ।।
आगे ऐसा कहते हैं कि--निश्चयनयसे ध्यान इसप्रकार करना:---
णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। ८३।।
निश्वयनयस्य एवं आत्मा आत्मनि आत्मने सुरतः। सः भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सः लभते निर्वाणम्।। ८३।।
अर्थ:--आचार्य कहते हैं कि निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है--जो आत्मा आत्मा ही में अपने ही लिये भले प्रकार रत हो जावे वह योगी, ध्यानी, मुनि सम्यक्चारित्रवान् होता हुआ निर्वाण को पाता है।
भावार्थ:--निश्चयनयका स्वरूप ऐसा है कि---एक द्रव्य की अवस्था जैसी हो उसी को कहे। आत्माकी दो अवस्थायें हैं---एक तो अज्ञान-अवस्था और एक ज्ञान अवस्था। जब तक अज्ञान-अवस्था रहती है तब तक तो बंधपर्यायको आत्मा जानता है कि---मैं मनुष्य हूं, मैं पशू हूं, मैं क्रोधी हूं, मैं मानी हूं, मैं मायावी हूं, मैं पुण्यवान्--धनवान् हूं, मैं निर्धन-दरिद्री हूं, मैं राजा हूं, मैं रंक हूं, मैं मुनि हूं, मैं श्रावक हूं इत्यादि पर्यायों में आपा मानता है, इन पर्यायों में लीन होता है तब मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, इसका फल संसार है उसको भोगता है।
जब जिनमत के प्रसाद से जीव-अजीव पदार्थों का ज्ञान होता है तह स्व-परका
निश्चयनये-ज्यां आतमा आत्मार्थ आत्मामां रमे, ते योगी छे सुचरित्रसंयुत; ते लहे निर्वाणने। ८३ ।
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