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। अष्टपाहुड
एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाणं पुण सुणसु। संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ।। ८५।।
एवं जिनैः कथितं श्रमणानां श्रावकाणां पुनः श्रृणुत। संसारविनाशकारं सिद्धिकरं कारणं परमं ।। ८५।।
अर्थ:--एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार उपदेश तो श्रमण मुनियोंको जिनदेवने कहा है। अब श्रावकोंको संसारका विनाश करने वाला और सिद्धि जो मोक्ष उसको करने का उत्कृष्ट कारण ऐसा उपदेश कहते हैं सो सुनो।
भावार्थ:--पहिले कहा वह तो मुनियों को कहा और अब आगे कहते हैं वह श्रावकोंको संसार का विनाश हो ओर मोक्षकी प्राप्ति हो।। ८५ ।।
आगे श्रावकोंको पहिले क्या करना , वह कहते हैं:---
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंपं। तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए।। ८६ ।।
गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुरगिरेरिव निष्कंपम्। तत् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ।। ८६ ।।
अर्थ:--प्रथम तो श्रावकोंको सुनिर्मल अर्थात् भले प्रकार निर्मल और मेरुवत् निःकम्प
| चल मलिन अगाढ़ दूषणरहित अत्यंत निश्चल ऐसे सम्यक्त्वको ग्रहण करके दुःखका क्षय करने के लिये उसका अर्थात् सम्यग्दर्शन का ( सम्यग्दर्शन के विषय ) ध्यान करना।
भावार्थ:--धावक पलि तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसका ध्यान करे, इस सम्यक्त्व की भावना से ग्रहस्थके गृहकार्य संबंधी आकुलता, क्षोभ, दुःख हेय है वह मिट जाता है, कार्य के बिगड़ने-सुधरने में वस्तुके स्वरूपका विचार
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श्रमणार्थ जिन-उपदेश भाख्यो, श्रावकार्थ सुणो हवे, संसार, हरनार शिव-करनार कारण परम ओ। ८५।
ग्रही मेरूपर्वत-सम अकंप सुनिर्मळा सम्यकत्वने, हे श्रावको! दुःखनाश अर्थे ध्यानमां ध्यातव्य ते। ८६ ।
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