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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २९०] । अष्टपाहुड सर्वास्रवनिरोधेन कर्म क्षपयति संचितम्। योगस्थः जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम्।।३०।। अर्थ:--योग ध्यानमें स्थित हुआ योगी मुनि सब कर्मोंके आस्रवका निरोध करके संवरयुक्त होकर पहिले बाँधे हुए कर्म जो संचयरूप हैं उनका क्षय करता है, इसप्रकार जिनदेवने कहा हे वह जानो। भावार्थ:--ध्यानसे कर्मका आस्रव रुकता है इससे आगामी बंध नहीं होता है और पूर्व संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है तब केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, यह आत्माके ध्यानका महात्म्य है।। ३०।। आगे कहते हैं कि जो व्यवहार तत्पर है उसके यह ध्यान नहीं होता है:--- जो सुत्तो व्यवहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।।३१।। यः सुप्तः व्यवहारे सः योगी जागर्ति स्वकार्ये। यः जागर्ति व्यवहारे सः सुप्तः आत्मनः कार्ये।। ३१ ।। अर्थ:--जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के काममें जागता है और जो व्यवहार में जागता है वह अपने आत्ममकार्य में सोता है। भावार्थ:--मुनिके संसारी व्यवहार तो कुछ है नहीं और यदि है तो मुनि कैसा ? वह तो पाखंड़ी है। धर्मका व्यवहार संघमें रहना, महाव्रतादिक पालना---ऐसे व्यवहारमें भी तत्पर नहीं है; सब प्रवृत्तियोंकी निवृत्ति करके ध्यान करता है वह व्यवहारमें सोता हुआ कहलाता है और अपने आत्मस्वरूपमें लीन होकर देखता है, जानता है वह अपने आत्मकार्य में जागता है। परन्तु जो इस व्यवहार में तत्पर है---सावधान है, स्वरूप की दृष्टि नहीं है वह व्यवहार में जागता हुआ कहलाता है।। ३१।। आगे यह कहते हैं कि योगी पूर्वोक्त कथनको जानके व्यवहारको छोड़कर आतमकार्य करता है: ---------------------- योगी सूता व्यवहारमा ते जागता निजकार्यमां; जे जागता व्यवहारमा ते सुप्त आतमकार्यमां। ३१ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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