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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड ] [ २८९ इसलिये मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य, पाप, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति छोड़ना ही ध्यान में युक्त कहा है; इसप्रकार आत्माका ध्यान करनेसे मोक्ष होता है ।। २८ ।। आगे ध्यान करनेवाला मौन धारण करके रहता है वह क्या विचारकर रहता है, यह कहते हैं:-- जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा । जागं दिस्सदे णेव तम्हा झंपेमि केणहं ।। २९ ।। यत् मया दृश्यते रूपं तत् न जानाति सर्वथा । ज्ञायकं दृश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम् ।। २९ ।। अर्थ:--जिसरूप को मैं देखता हूँ वह रूप मूर्तिक वस्तु है, जड़ है, अचेतन है, सब प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ, अमूर्तिक हूँ। यह तो जड़ अचेतन है सब प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है, इसलिये मैं किससे बोलूँ ? भावार्थ:--यदि दूसरा कोई परस्पर बात करने वाला हो तब परस्पर बोलना संभव है, किन्तु आत्मा तो अमूर्तिक है उसको वचन बोलना नहीं है और जो रूपी पुद्गल है वह अचेतन है, किसी को जानता नहीं देखता नहीं। इसलिये ध्यान केनेवाला कहता है कि-- मैं किससे बोलूँ? इसलिये मेरे मौन है ।। २६ ।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार ध्यान करनेसे सब कर्मोंके आस्रवका निरोध करके संचित कर्मोंका नाश करता हैं: === सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं । जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ।। ३० ।। १ पाठान्तर :- णं तं णंत । देखाय मुजने रूप जे ते जाणतुं नहि सर्वथा, ने जाणनार न दश्यमान हुं बोलुं कोनी साथमा ? २९ । आस्रव समस्त निरोधीने क्षय पूर्वकर्म तणो करे, ज्ञाता ज बस रही जाय छे योगस्थ योगी;- जिन कहे । ३० । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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