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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८८ ] [ अष्टपाहुड की प्रवृत्ति इसप्रकार है -- जो अपने लिये अनिष्ट हो उससे क्रोध करे, अन्यको नीचा मानकर मान करे, किसी कार्य निमित्त कपट करे, आहारादिकमें लोभ करे। यह गारव है वह रस, ऋद्धि और सात -- ऐसे तीन प्रकारका है ये यद्यपि मानकषायमें गर्भित तो भी प्रमादकी बहुलता इनमें है इसलिये भिन्नरूपसे कहे हैं। मद–जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य इनका होता है वह न करे। राग-द्वेष प्रीति - अप्रीति को कहते हैं, किसीसे प्रीति करना, किसी से अप्रीति करना, इसप्रकार लक्षणके भेदसे भेद करके कहा। मोह नाम परसे ममत्वभावका है, संसारका ममत्व तो मुनिके है ही नहीं परन्तु धर्मानुरागसे शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है वह भी छोड़े। इसप्रकार भेदविवक्षा से भिन्न भिन्न कहे हैं, ये ध्यान के घातक भाव हैं, इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं है इसलिये जैसे ध्यान हो वैसे करे ।। २७ ।। आगे इसीको विशेषरूप से कहते हैं: मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोइ जोयत्थो जोयए अप्पा ।। २८ ।। मिथ्यात्वं अज्ञानं पापं पुण्यं त्यक्त्वा त्रिविधेन। मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम् ।। २८ ।। अर्थः-- योगी ध्यानी मुनि है वह मिथ्यात्व अज्ञान, पाप-पुण्य इनको मन-वचन-काय से छोड़कर मौनव्रतके द्वारा ध्यानमें स्थित होकर आत्माका ध्यान करता है । भावार्थ:--कई अन्यमती योगी ध्यानी कहलाते हैं, इसलिये जैनलिंगी भी किसी द्रव्यलिंगीके धारण करने से ध्यानी माना जाय तो उसके निषेध के निमित्त इसप्रकार कहा है——मिथ्यात्व और अज्ञान को छोड़कर आत्माके स्वरूपको यथार्थ जानकर सम्यक् श्रद्धान तो जिसने नहीं किया उसके मिथ्यात्व - अज्ञान तो लगा रहा तब ध्यान किसका हो तथा पुण्य-पाप दोनों बंधस्वरूप हैं इनमें प्रीति - अप्रीति रहती है, जब तक मोक्षका स्वरूप भी जाना नहीं है तब ध्यान किसका हो और [ सम्यक् प्रकार स्वरूपगुप्त स्वअस्तिमें ठहरकर ] मन वचनकी प्रवृत्ति छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो ? त्रिविधे तक्व मिथ्यात्वने, अज्ञानने, अघ - पुण्यने, योगस्थ योगी, मौनव्रतसंपन्न ध्यावे आत्मने । २८ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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