SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] /२८७ यः इच्छति निःसत्तुं संसारमहार्णवात् रुद्रात्। कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आत्मानां शुद्धम्।। २६ ।। अर्थ:--जो जीव रुद्र अर्थात् बड़े विस्ताररूप संसाररूपी समुद्र से निकलना चाहता है वह जीव कर्मरूपी ईंधनको दहन करनेवाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। भावार्थ:--निर्वाण की प्राप्ति कर्मका नाश हो तब होती है और कर्मका नाश शुद्धात्मा के ध्यान से होता है अत: जो संसारसे निकलकर मोक्षको चाहे वह शुद्ध आत्मा जो कि--- रहित अनन्तचतष्टय सहित [ निज निश्चय ] परमात्मा है उसका ध्यान करता मोक्षका उपाय इसके बिना अन्य नहीं है।। २६ ।। आगे आत्माका ध्यान करनेकी विधि बताते हैं:--- सव्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं। लोय ववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो।। २७।। सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागदोष व्यामोहम्। लोकव्यवहारविरत: आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः।। २७।। अर्थ:--मुनि सब कषयोंको छोड़कर तथा गारव, मद, राग, द्वेष तथा मोह इनको छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यानमें स्थित हुआ आत्माका ध्यान करता है। भावार्थ:--मुनि आत्माका ध्यान ऐसा होकर करे---प्रथम तो क्रोध, मान, माया, लोभ इन सब कषायोंको छोड़े, गारवको छोड़े, मद जाति आदिके भेदसे आठ प्रकारका है उसको छोड़े, रागद्वेष छोड़े और लोकव्यवहार जो संघमें रहनेमें परस्पर विनयाचार, वैयावृत्य, धमोरुपदेश, पढ़ना, पढ़ाना है उसको भी छोड़े, ध्यान में स्थित होजावे, इसप्रकार आत्माका ध्यान करे। यहाँ कोई पूछे कि---सब कषायोंका छोड़ना कहा है उसमें तो गारव मदादिक आ गये फिर इनको भिन्न भिन्न क्यों कहे ? उसका समाधान इसप्रकार है कि--ये सब कषायों में तो गर्भित हैं किन्तु विशेषरूपसे बतलाने के लिये भिन्न भिन्न कहे हैं। कषाय सघळा कषायो मोहराग विरोध-मद-गारव तजी, ध्यानस्थ ध्यावे आत्मने, व्यवहार लौकिकथी छूटी। २७। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy